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312 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
क्रोधित बना राजा हाथी पर बैठकर युद्ध करने लगा। युद्ध में अनेक प्राणी घायल हुए और बहुत-से मर भी गए ।
शत्रुओं से घायल हुआ मधु राजा युद्धभूमि से बाहर निकल गया । वहाँ से चलते-चलते वह मन में संसार की असारता का चिन्तन करने लगा। इस तरह संसार से वैरागी बना राजा मन में विचार करने लगा - 'चाहे मैं बाह्य दृष्टि से राज्य करता रहा हूँ, पर मेरा मनोरथ यही था कि मैं जिनकथित प्रव्रज्या को ग्रहण करके विशेष आराधना के द्वारा संलेखना ग्रहण करूँ । '
अब ज्यादा विचार न करके मुझे शीघ्र ही हाथी की पीठ पर ही संथारा कर लेना उचित होगा- ऐसा चिन्तन कर उसने संथारा ग्रहण कर लिया और सभी सावद्य - प्रवृत्तियों का त्रिविध - त्रिविध रूप से त्याग कर सभी जीवों से क्षमायाचना की। तत्पश्चात् अनशन - व्रत ग्रहण कर राजा ने पंचपरमेष्ठि को नमस्कार किया और भक्तिपूर्वक नमस्कार करते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए। इस कथा का सार यही है कि अन्त समय में शुभभावपूर्वक संलेखना ग्रहण करने से व्यक्ति स्वर्ग-सुख अथवा मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है।
इस प्रकार अकस्मात् मृत्यु उपस्थित होने पर समाधिमरण की संक्षिप्त आराधना के सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में मधु राजा का दृष्टान्त उपलब्ध होता है। आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा प्रस्तुत इस दृष्टान्त के संकेत हमें ऋषिभाषित ( अध्याय - १५ ) में उपलब्ध होते हैं। इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से चतुर्विध आहार का सागार और अनागार - प्रत्याख्यान करके शरीर के प्रति रागभाव का भी त्याग करने का निर्देश है तथा अन्त में शुभध्यान में आरूढ़ होते हुए देहत्याग करने का उल्लेख किया गया है।
सुकौशल मुनि की कथा
संवेगरंगशाला में संक्षिप्त आराधना के सम्बन्ध में सुकौशल मुनि की कथा कही गई है 748 :
साकेतनगर में कीर्तिधर नामक राजा राज्य करता था। उसके सहदेवी नाम की रानी तथा सुकौशल नामक पुत्र था। एक दिन राजा को तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ और सुकौशल का राज्याभिषेक करके स्वयं आचार्यश्री के पास जाकर उसने संयम स्वीकार कर लिया। वहाँ से विहार कर मुनि अन्य ग्राम एवं नगरों में
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सविगरंगशाला, गाथा ६६६-७०७.
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