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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 323
की सर्वत्र जय-जयकार होने लगी। राजा ने उसका विवाह-महोत्सव किया और राज्य भी उसे ही दे दिया। इस तरह सुरेन्द्रदत्त ने ज्ञान से ही गौरव प्राप्त किया।
ज्ञान इस लोक और परलोक में सुख देनेवाला है, अतः शिक्षा ग्रहणकर ज्ञान-अभ्यास में उद्यम करना चाहिए, क्योंकि शिक्षा के बिना व्यक्ति मूढ़ रहता है तथा श्रीमाली आदि राजपुत्रों के समान जनसमूह में आदर का पात्र नहीं बनता
इस प्रकार संवेगरंगशाला की प्रस्तुत कथा में ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए सम्यग्ज्ञान को मोक्ष का साधन बताया गया है। इसमें सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हेतु निरन्तर प्रयत्न करने का निर्देश है। इस प्रसंग में ग्रन्थकार ने ज्ञान के अभाव में इन्द्रदत्त के अन्य पुत्रों की स्थिति एवं ज्ञान से युक्त उसके ही पुत्र सुरेन्द्रदत्त की स्थिति का सुन्दर चित्रण किया है। इन्द्रदत्त के अज्ञपुत्रों और सुरेन्द्रदत्त की यह कथा हमें आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ.४४७), आवश्यकवृत्ति (पृ. ३४४, ४०४, ७०२), उत्तराध्ययनवृत्ति (पृ. १४८-१५०) तथा व्यवहारसूत्रभाष्य (६/२१३) में भी प्राप्त होती है।
श्रेणिक राजा की कथा विद्या विनय से प्राप्त होती है। दुर्विनीत को विद्या प्राप्त नहीं होती है। संवेगरंगशाला में श्रेणिक राजा की कथा में यही बताया गया है कि श्रेणिक राजा ने विनीत बनकर ही विद्या प्राप्त की थी।53
राजगृह नगरी में श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था। उसकी सभी रानियों में चेलना मुख्य रानी थी। चारों प्रकार की बुद्धि से युक्त अभयकुमार नामक उसका पुत्र मन्त्री था। एक समय रानी ने राजा से कहा- "हे राजन्! आप मेरे लिए एक स्तम्भवाला महल बनवा दीजिए।" राजा ने रानी की बात स्वीकार कर अभयकुमार को यह कार्य करने का आदेश दिया।
अभयकुमार सतार को लेकर जंगल में गया। वहाँ बड़ी शाखाओंवाला एक वृक्ष देखा और वहीं तपपूर्वक वृक्ष के देवता की आराधना करने लगा। रात्रि में देव ने आकर अभयकुमार से कहा- "तुम इस वृक्ष को मत काटो। मैं तुम्हें सर्वऋतुओं के फल और पुष्पों से युक्त वृक्षों के मनोहर बाग से सुशोभित एक
753 संवेगरंगशाला, गाथा १६१८-१६६०.
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