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जयसुन्दर और सोमदत्त की कथा
आगाढ़ उपसर्ग से बचने का कोई अवसर न हो, अथवा दुष्काल हो, तब अविधि से किया हुआ मरण भी शुद्ध माना गया है। संवेगरंगशाला में इसका उल्लेख जयसुन्दर और सोमदत्त की कथा में मिलता है, जिन्होंने विशेष कारणों से वैहानस और गृद्धपृष्ठमरण को स्वीकार किया था
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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 343
वैदेशात् नगर में सुदर्शन नाम का एक सेठ रहता था। उसके दो पुत्र थे- प्रथम, जयसुन्दर और दूसरा, सोमदत्त । दोनों रूप, कला एवं गुणों से युक्त थे। एक दिन वे दोनों व्यापार हेतु अहिछत्रा नगरी गए। वहाँ जयवर्द्धन सेठ से उनकी मित्रता हो गई। उस सेठ की सोमश्री और विजयश्री नाम की दो पुत्रियां थीं। सेठ ने अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह उन दोनों भाइयों के साथ कर दिया। वे दोनों भाई वहीं आनन्द से रहने लगे। एक समय वैदेशात् नगरी से आए पुरुषों द्वारा पिताजी की अस्वस्थता को जानकर, वे दोनों अपनी पत्नियों को वहीं छोड़कर अपने घर पहुँचे। वहाँ उन्होंने शोकग्रस्त परिवारजनों को रोते देखा । पिताजी हमें छोड़कर चले गए हैं- ऐसा विचार कर वे भी जोर से रोने लगे। फिर उन्होंने पूछा - "क्या पिताजी ने हमारे लिए कोई सन्देश कहा है?" परिजनों ने कहा"हमें तो नहीं कहा। मात्र पुत्रदर्शन की आशा में ही उनके प्राण निकल गए।" यह सुनकर वे दोनों फिर से रुदन करने लगे और यमराज को कोसने लगे- “हे निष्ठुर यम ! पिता से हमारा मिलाप तो करा देता । " पिता के वियोग से दुःखित हुए भाइयों ने खाना-पीना छोड़ दिया। परिजनों द्वारा अनेक प्रकार से समझाने पर वे अन्यमनस्क होकर कार्य में प्रवृत्ति करने लगे ।
किसी एक समय दोनों भाइयों ने दमघोषसूरि के पास सर्वज्ञकथित धर्म का श्रवण किया। इससे उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ। दोनों ने हाथ जोड़कर आचार्य से निवेदन किया- “हे भगवन्त ! हम आपके पास दीक्षा लेना चाहते हैं।" इनके भविष्य में कुछ विघ्न आएगा- अपने श्रुतज्ञान से ऐसा जानकर आचार्य ने कहा" हे महानुभावों ! भविष्य में तुम्हें स्त्रियों का महान् उपसर्ग होगा। यदि प्राण देकर भी उस उपसर्ग को सम्यक् प्रकार से सहन करोगे, तो दीक्षा स्वीकार करो और मोक्ष के लिए उद्यम करो, अन्यथा चढ़कर गिर जाने की घटना लोक में हास्य का कारण बनती है।” उन्होंने कहा- "संसार के प्रति हमें अल्प भी राग होता, तो सर्वविरति की भावना नहीं करते, अतः आप तो हमें दीक्षा दे दीजिए। " तत्पश्चात् दीक्षा देकर आचार्य ने उन्हें सर्व सूत्रों के अर्थों का गहन अध्ययन कराया। फिर
762 संवेगरंगशाला, गाथा ३४६२-३५२४.
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