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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 363
से बचा लिया है।" इस तरह सत्य बात जानकर वैद्य ने श्रेष्ठ दवा, आदि का प्रयोग करके उसे स्वस्थ कर दिया।
इस प्रकार लज्जा को त्यागकर जो भूलों को स्वीकार कर लेता है, वही आरोग्यमय सिद्धलोक में शाश्वत सुखों को प्राप्त करता है ।
प्रस्तुत कथानक का मूल स्रोत ढूंढ़ने का हमने प्रयास किया, किन्तु चूर्णिकाल तक की कथाओं में इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ। इससे यह सम्भावित हो सकता है कि आचार्यश्री ने यह कथा किसी अन्य ग्रन्थ से ग्रहण की हो ।
विशेष आराधना की इच्छावाले आराधक को
संयम क्रिया में लगे हुए सूक्ष्मतम अतिचारों का भी प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए। जैसे- जहर का सम्पूर्णतः प्रतिकार नहीं करने से उसका एक कण भी प्राण हरण कर लेता है, वैसे ही अल्पतम चारित्रिक - दोष अनिष्ट फल को देनेवाला होता है। संवेगरंगशाला में इस सम्बन्ध में सूरतेज राजा की कथा वर्णित है।
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सूरतेज राजा का प्रबन्ध
पद्मावती नगरी में सूरतेज नाम का राजा राज्य करता था । उसे निष्कपट प्रेम करनेवाली धारिणी नाम की रानी थी। दाम्पत्य-जीवन का उपभोग करते हुए राजा धर्म में प्रवृत्ति करने लगा। एक समय कोई आचार्य नगर के बाहर उद्यान में पधारे। उनका आगमन सुनकर राजा अपने परिवार तथा प्रजाजन संहित उद्यान में पहुँचा एवं आचार्यश्री के चरणों में नमस्कार करके आसन ग्रहण कर जिनवाणी का श्रवण करने लगा। आचार्य ने उसकी योग्यता को देखकर अपनी गम्भीर वाणी से सद्धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ किया
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जीवात्मा अत्यन्त दुलर्भता से मनुष्य-भव को प्राप्त करता हैं। उसमें भी कभी अनार्यक्षेत्र में उत्पन्न होता है, तो कभी उच्च कुल, जातिरहित होता है, तो कभी पाँच इन्द्रिय की पटुता, आरोग्यता से रहित होता है, इस प्रकार शुभकार्य में प्रवृत्ति नहीं कर पाता है। दीर्घ आयुष्यवाला जीव बुद्धि के अभाव में धर्म-प्रवृत्ति से विमुख, विविध आपत्तियों से घिरा हुआ, अवन्तीनाथ के समान मनुष्यभव को निष्फल गवाँकर मृत्यु को प्राप्त करता है, जबकि उत्तम जीव बुद्धि के द्वारा
संवेगरंगशाला, गाथा ५१०१-५२१५.
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