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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 361
आप दया के सागररूप हैं, आप ही संसाररूपी कुएँ में गिरे हुए जीवों को हाथ का सहारा देकर बचानेवाले हैं, अतः मेरा एक अपराध क्षमा करो। पुनः मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा। हे मुनीन्द्र! पुत्र की व्याकुलता तथा दुष्ट प्रेरणा से मैंने यह कार्य किया। अब इस प्रसंग से मेरा विवेक जाग्रत हो गया है। अब मुझे पुत्र एवं इस राज्य से कोई प्रयोजन नहीं, जिसके कारण मैं आपकी प्रतिकूलता का कारण बना।"
राजा को भयभीत होते देख मुनि ने राजा को मधुर वचनों से आश्वासन देकर निर्भय बनाया। उस समय वहाँ जिनदास श्रावक मुनि से प्रभावित हुआ और उसने राजा से कहा- "हे देव! मुनि के नाम लेने मात्र से भूत, पिशाच, ग्रहादि शान्त हो जाते हैं तथा इनके चरणों के प्रक्षालित जल से तो विषम रोग भी शान्त हो जाते हैं।" ऐसा सुनकर राजा ने मुनि के चरणों के प्रक्षालन-जल से पुत्र का सिंचन किया और पुत्र तुरन्त स्वस्थ शरीरवाला बना। इससे राजा जैन-धर्म पर श्रद्धान्वित हुआ तथा उसने सद्धर्म को स्वीकार कर जिनधर्म विरोधी पुरोहित को देश से बाहर निकाल दिया। फिर राजा ने आदरपूर्वक क्षपकमुनि का सत्कार-बहुमान किया।
इस प्रकार अनशन में स्थिर हरिदत्त मुनि की आराधना में उत्पन्न हुए विघ्न को रोकने के लिए मुनि को विद्याबल का प्रयोग करना पड़ा, जो मुनि के लिए करणीय नहीं है; इसलिए विघ्न का विचार किए बिना न तो अनशन स्वीकार करना चाहिए और न ही अनशन का प्रत्याख्यान करवाना चाहिए।
हरिदत्त मुनि की यह कथा हमें संवेगरंगशाला में जिस रूप में उपलब्ध होती है, उस रूप में किन्हीं अन्य जैन ग्रन्थों में उल्लेखित हो- यह ज्ञात नहीं होता है, किन्तु इसमें सामान्य रूप से दान देने में और स्वयं का परिपालन करते हुए जीवों को अभयदान देने में जो महान् अन्तर बताया गया है, उसका मूल स्रोत उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है। वहाँ भी कहा गया है कि जो व्यक्ति हजारों गायों को दान में देता है, उसकी अपेक्षा जो संयम का परिपालन करता है, वह अधिक श्रेष्ठ है।
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