Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 389
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /351 आर्यमहागिरि के चले जाने के बाद वसुभूति ने अपने स्वजनों को समझाया कि ऐसा साधु अगर भिक्षा के लिए आए, तो आहार-पानी निरुपयोगी है- ऐसा कहकर आदरपूर्वक देना। किसी दिन आर्य महागिरि भिक्षा हेतु सेठ के घर पहुँचे। शिक्षा-अनुसार अन्न-पानी देने में सबको तत्पर बना देखकर, मेरुसमान धीरता धारण कर, द्रव्यक्षेत्र का उपयोग लगाकर 'यह कपट-रचना है'- ऐसा जानकर भिक्षा लिए बिना ही चले गए। फिर उन्होंने आर्यसुहस्ति को कहा- "मुझे आते देखकर खड़े होकर विनय करने से तुमने मेरा आहार दूषित किया है।" इसके बाद दोनों वहाँ से एक साथ विहार कर अवन्ती नगरी पहुंचे। इस तरह जिनकल्प को स्वीकार कर महामुनि आत्मसामर्थ्य को ही प्रकट करते हैं। संवेगरंगशाला में इस कथा के माध्यम से यह बताया गया है कि यदि अत्यन्त दुःसह परीषहों की सेना उपसगों सहित चढ़ाई कर दे, तो भी धीरपुरुष उन उपसगों को धैर्यता से सहन करता है। इस सम्बन्ध में आर्यमहागिरि की कथा उपलब्ध होती है। यह कथानक हमें आवश्यकचूर्णि (पृ. १५५-१५७) में भी उपलब्ध होता है। गंगदत्त की कथा जो द्रव्य-भाव से सम्यक् संलेखना करता है, वह महात्मा समाधिमरण की आराधना से मुक्ति-निलय को प्राप्त करता है, किन्तु जो अपनी मति से इस विधि से विपरीत क्रिया करता है, वह आराधक नहीं होता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में गंगदत्त की निम्न कथा प्रस्तुत की गई है.६६ : जयवर्द्धन नाम के प्रसिद्ध नगर में बन्धुप्रिय नाम का एक सेठ रहता था। उसको अति विनीत गंगदत्त नामक एक पुत्र था, जिसका विवाह उसने किसी वणिक की पुत्री के साथ तय किया। गंगदत्त के हस्तमिलाप के समय वणिक-पुत्री को दुःसह दाहरोग उत्पन्न हुआ। इससे वह सोचने लगी- 'अरे क्या मैंने अग्नि का स्पर्श किया, अथवा मेरे शरीर में जहर चढ़ गया है।' ऐसा चिन्तन कर वह रोने लगी। उसे रोते हुए देखकर पिता ने पूछा- “हे पुत्री! हर्ष के समय तू इस तरह सन्ताप क्यों करती है? यदि तुझे कोई पीड़ा हो रही हो, तो मुझे निःशंक होकर स्पष्ट वचनों से कह, जिससे मैं तेरी पीड़ा दूर कर सकूँ।" पुत्री ने कहा"पिताजी! जो कार्य हो चुका हो, उसे अब कहने से क्या प्रयोजन है? 100 सवगरंगशाला, गाथा ४०४६-४१६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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