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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 355
निरकुंश बन गए तथा गुरु की अपने प्रति उपेक्षावृत्ति देखकर शिष्य उनकी सेवा आदि कार्यों में मन्द आदरवाले हो गए। उनकी ऐसी प्रवृत्ति देखकर शिवभद्र हृदय में सन्ताप करने से विराधक होकर असुर-देवों में उत्पन्न हुए। फिर गुरु की अनुपस्थिति में शिष्यों ने शिथिलता को धारण किया और मन्त्र-तन्त्र आदि में प्रवृत्ति करने लगे।
इस कथा का सार यह है कि उत्तम गुणवाले शिष्य के अभाव में मध्यम गुण वाले शिष्य को आचार्य - पद देकर, फिर ही आचार्य को अनशन ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा जिनशासन की निन्दा, धर्म का नाश एवं कर्मबन्धन, आदि दोष लगने की सम्भावना होती है। संवेगरंगशाला में जो शिव - आचार्य की कथा दी गई है, उसका मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु जैन आगमों में हमें इसका मूल स्रोत उपलब्ध नहीं होता है।
आचार्य नयशीलसूरि की कथा
आत्मा की शुद्धि एवं वैर भाव को उपशान्त करने में क्षमापना उत्तम गुण है। इसके अभाव में व्यक्ति का ज्ञानाभ्यास एवं धर्माराधना निष्फल हो जाती है। इस प्रसंग पर संवेगरंगशाला में नयशीलसूरि की निम्न कथा प्रस्तुत की गई है।
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एक विशाल समुदाय में महाश्रुतज्ञानी एवं महोपदेशक - ऐसे नयशील नाम के आचार्य थे, परन्तु प्रमादवश वे संयम की क्रिया नहीं करते थे। उनका एक शिष्य था, जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त था। विचक्षण बुद्धिवाले मुनिगण शास्त्रों का अभ्यास करने उसके पास ही जाते थे और उसके चारित्र की प्रशंसा करते थे। अपने शिष्य की सेवा, प्रशंसा होते देख आचार्य विचार करने लगे- 'मैंने इसे दीक्षित कर इसका पालन किया तथा इसे बहुश्रुतज्ञानी एवं गुणवान् बनाया है, फिर भी यह मेरी पर्षदा में मेरा ही अपमान (मेरी ही अवगणना) कर रहा है। इसकी प्रवृत्ति को रोकूँगा, तो लोग मुझे ईर्ष्यावाला समझेंगे।' इस प्रकार उसे कुछ न कहकर आचार्य उसकी अपेक्षा करके उसके प्रति द्वेष-भाव रखने लगे। इस तरह आचार्य अन्त समय तक मन में संक्लेशभाव लिए शिष्य से
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संवेगरंगशाला, गाथा ४२८१-४३११.
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