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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 353
मना करते हुए यह समझाया कि पुष्ट शरीरवालों को अभी अनशन करना उचित नहीं है, विविध तपस्या करने के पश्चात् ही क्रमशः संलेखना करना चाहिए, अन्यथा विस्त्रोतसिका-दुर्ध्यान आदि से यह अनशन बहुत संकटों को उत्पन्न करनेवाला हो सकता है। स्थविरों द्वारा समझाने पर भी उनकी वाणी का अपमान करके वह अनशन करने हेतु पर्वत की शिला पर एकचित्त होकर बैठ गया। अनशन में स्थिर गंगदत्त मुनि ने वहाँ अनेक स्त्रियों से युक्त एक विद्याधर को देखा, जिससे मुनि का मन चलायमान हुआ। उस समय मुनि विचार करने लगा'मेरा कितना दुर्भाग्य है कि मैं अखण्ड देहवाला होकर भी सौभाग्य को प्राप्त नहीं कर सका,' अतः उसने निश्चय किया कि यदि इस साधु-जीवन का कुछ फल हो, तो मैं आगामी जीवन में इसके जैसा ही सौभाग्यशाली बनूँ। ऐसा निदान करके वह महेन्द्रकल्प में श्रेष्ठ देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ से आयुष्य पूर्णकर उज्जैन नगर में समरसिंह राजा के यहाँ रणशूर नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ।
पूर्वनिदान के कारण उसने अमर्यादित सौभाग्य को प्राप्त किया। राजा, महाराजा, सेनापति, बड़े-बड़े धनाढ्य, सामन्त और मन्त्रियों की अनेक पुत्रियों के साथ उसका विवाह हुआ और उसने लम्बे समय तक उनके साथ पाँचों प्रकार के विषयसुखों का भोग किया। वहाँ से मरकर रणशूर अपने दुराचरण के कारण संसाररूपी गर्त में गिरा और अनन्त दुःखों को प्राप्त किया।
इसीलिए कहा गया है कि पहले द्रव्य और भाव-दोनों प्रकार की संलेखना करने के बाद ही भक्तप्रत्याख्यान, अर्थात् अनशन करना चाहिए। आराधक को अपनी आराधना भंग न हो- ऐसी सजगता रखना चाहिए।
संवेगरंगशाला के अनुसार जिस प्रक्रिया अथवा विधि द्वारा शरीर एवं कषाय-वृत्तियों को कृश या क्षीण किया जाता है, उसका नाम है-संलेखना। जैनदर्शन में कर्मबन्ध का मूल कारण माना गया है - योग और कषाय। योग का आधार काया (शरीर) है, अतः इन दोनों कारणों को कृश करना या पतला करना ही कर्म-मुक्ति का उपाय है। संवेगरंगशाला में प्रस्तुत प्रसंग पर ग्रन्थकार ने गंगदत्त की उपर्युक्त कथा का निरूपण किया है। प्रस्तुत कथा के संकेत हमें आवश्यकनियुक्ति (भाग १, पृ. ४७४-४७५), समवायांग (१५८), तीर्थोद्गालिक (गा. ६०५, ६०६), भक्तपरिज्ञा (गा.१३७), आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते
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