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338 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
पापोदय से धीरे-धीरे उसका धन नष्ट होने लगा, साथ ही अनाज के गोदाम भी जल गए और वह सम्पूर्ण निर्धन हो गया। स्वजन भी पराए हो गए। शोकातुर बने वज्र ने मित्र क्षोमिल से अन्य देश में जाने की इच्छा प्रकट की, जिससे मित्र भी साथ चलने को तैयार हुआ। दोनों मित्र अपने नगर से निकलकर स्वर्णभूमि में पहुँचे। वहाँ भाग्योदय से दोनों ने बहुत धन प्राप्त किया। उस धन से उन्होंने आठ बहुमूल्य रत्न खरीदे और घर-परिवार की बहुत याद आने से वापस अपने नगर की ओर चल पड़े।
अर्द्धमार्ग में क्षोमिल की नीयत बिगड़ी। वह वज्र को ठगने के लिए उपाय सोचने लगा। एक बार जब वज्र गांव में गया, तब कपट से क्षोमिल उन आठों रत्नों को एक गठरी में बांधने लगा तथा कुछ पत्थरों को एक दूसरी गठरी में । इतने में वज्र गांव से वापस आ गया। कहीं इसने मुझे देख न लिया हो - इस भय से वह कहने लगा- " मित्र ! इस जंगल में चोर न जाने हमें कब लूट लें, इसलिए रत्नों की दो गठरी बना ली है। क्षोमिल ने गलती से असली रत्नों की गठरी वज्र को दे दी और स्वयं नकली गठरी लेकर सो गया। मध्यरात्रि में क्षोमिल ने उठकर अपनी गठरी ली और मित्र को छोड़कर चल दिया।
सात योजन चलने के पश्चात् जब वह गठरी खोलकर देखने लगा, तो उसमें रत्न की जगह पत्थर निकले। रत्न नहीं मिलने से उसके हृदय में गहरा आघात पहुँचा। क्षोमिल विचारने लगा कि मित्र के साथ ठगाई करने से विधाता द्वारा मुझे इसी भव में पाप का फल प्राप्त हो गया। थके-हारे तथा भूखे-प्यासे क्षोमिल ने भिक्षा के लिए किसी गांव में प्रवेश किया। वहाँ किसी के घर जाकर उसने भिक्षा की याचना की । दयाभाव से गृहस्वामिनी उसे भोजन देने लगी। उसी समय उसका पति वहाँ आया तथा उसे भोजन देते देखकर क्रोध से पत्नी को कहने लगा- “हे पापिनी ! दुराचारिणी! मेरे जाने के बाद तू ऐसा पाप करती है । " इस प्रकार उस पति ने अपनी पत्नी को अनेक अपशब्द कहे तथा क्षोमिल को व्यभिचारी बताकर उसे राजपुरुष को सौंप दिया।
राजा ने राजपुरुष को उसके वध का आदेश दिया। राजपुरुषों ने उसें वधस्थान पर ले जाकर एक वृक्ष पर रस्सी से लटका दिया और चले गए, किन्तु क्षोमिल के प्राण निकलने से पहले ही वह रस्सी टूट गई और वह नीचे गिर गया । वन की शीतल हवा से स्वस्थ महसूस कर वह धीरे-धीरे खड़ा हुआ और राजा के भय से शीघ्र भागने लगा।
भागते हुए दूर जंगल में उसे एक मुनि दिखाई दिए। वह मुनि के पास आकर उन्हें नमस्कार करके वहीं बैठ गया। मुनि ने उसे योग्य जानकर धर्मोपदेश
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