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340/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
त्याग पर सहस्त्रमल्ल की कथा संवेगरंगशाला में त्याग, वैराग्य और आराधना के सन्दर्भ में सहस्त्रमल्ल की कथा प्रस्तुत की गई है, वह इस प्रकार है-760
शंखपुर नगर में कनककेतु नामक राजा राज्य करता था। उसकी सेवा में कुशल गुणानुरागी वीरसेन नाम का एक सेवक था। उसके राज्य की सीमा पर कालसेन नामक पल्लिपति रहता था। कालसेन द्वारा अपने राज्य के धन का हरण होते देखकर एक देन राजा ने अपने सेवको से पूछा- "कालसेन को जीतने में कौन समर्थ है?" तब सामन्त, सैनिक, आदि सभी के द्वारा मना करने पर वीरसेन ने कहा- "हे देव! मैं समर्थ हूँ। आप मुझ अकेले को ही जाने की आज्ञा प्रदान करें।" राजा ने प्रसन्नतापूर्वक अपने हस्तकमल से ताम्बूल देकर उसे भेजा।
वीरसेन राजा को नमस्कार कर नगर में से निकलकर शीघ्र ही पल्लिपति के पास पहुँचा। वीरसेन ने कालसेन को राजा से सन्धि करने को कहा, लेकिन उसने सन्धि नहीं की, अपितु उसे अकेला जानकर उसकी अवगणना की। इससे रुष्ट हो वीरसेन ने शूरवीर की तरह युद्धकर कालसेन की केशराशि पकड़कर उसे बन्दी बना लिया और कनककेतु को सौंप दिया। वीरसेन पर प्रसन्न होकर राजा ने उसे एक हजार गांव दिए और उसका नाम सहस्त्रमल्ल रखा। तत्पश्चात् राजा कनककेतु ने कालसेन के साथ भी सन्धि कर ली और हर्षित मन से उसका सत्कार कर उसे अपने स्थान पर भेज दिया।
एक दिन सहस्त्रमल्ल ने नगर के उद्यान में सुदर्शन नाम के आचार्य को देखा। उसने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्म-उपदेश सुना। आचार्यश्री ने भी संसार की असारता को बतलानेवाला और मोक्षप्राप्तिरूप फल देनेवाला जिन-कथित धर्म कहा। जैनधर्म का स्वरूप समझकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और वह गुरु के चरणों में नमस्कार कर कहने लगा- “अब संसार में रहने का मेरा अल्प प्रयोजन भी नहीं है। अब मुझे शीघ्र दीक्षा प्रदान करें।" गुरु ने उसे जन्म-मरण के दुःखों को क्षय करनेवाली भगवती-दीक्षा प्रदान की। त्याग और वैराग्यपूर्वक अनियतविहार करते हुए एक दिन सहस्त्रमल्लमुनि कालसेन के मण्डप में पहुँचे। कालसेन मुनि को देखकर उन्हें तुरन्त पहचान गया। "यह मेरा शत्रु है, अतः इसके अभिमान को नष्ट करो"- ऐसा उसने अपने सेवकों से कहा।
760 संवेगरंगशाला, गाथा ३३६४-३४४०.
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