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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 337
संवेगरंगशाला में इस कथा के द्वारा यह बताया गया है कि जब तक जंघाबल क्षीण नहीं हो, तब तक मुनि को अनियतविहार, अर्थात् अप्रतिबद्ध-विहार करना चाहिए। बलवान् होने पर भी यदि मुनि रसलोलुपता या सुविधावश विहार करने में प्रमाद करता है, तो अन्य मुनिजन उसका त्याग कर चले जाते हैं। यदि वही व्यक्ति शुभभाव से युक्त होकर पुनः विहार करने में उद्यमशील बनता है, तो वह पुनः साधु के गुणों से युक्त बन जाता है। इस कथा में भी यह कहा गया है कि अनियतविहार करने से दर्शनशुद्धि, संवेग तथा निर्वेद द्वारा धर्म में स्थिरीकरण, चारित्र के प्रति अभिरुचि, सूत्रों के विशेष अर्थ की प्राप्ति, कुशलता और विविध देशों का परिचय-इन छ: गुणों की प्राप्ति होती है। इसी सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में सेलकसूरि की कथा वर्णित है। प्रस्तुत कथानक हमें ज्ञाताधर्मकथा (अध्याय ५५), आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. १७३, २०१, ३८६), स्थानांगवृत्ति (पृ. १८२-२१८), समवायांगवृत्ति (पृ. ११८), गच्छाचारप्रकीर्णकवृत्ति (पृ. ७), आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है।
वज्र और केशरी की कथा । प्रतिदिन धर्म आराधना करनेवाला साधक अपने पुत्र को उचित शिक्षा न देता हो और धन के प्रति मूर्छादि के कारण अपना धन नहीं बतलाता हो, तो धनासक्तिवश आत-रौद्रध्यान से वे सभी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में वज्र एवं केशरी की कथा दी गई है-759
कुसुमस्थल नगर में महाऋद्धि का स्वामी धनसार नामक सेठ रहता था। उसको वज्र नामक एक पुत्र था। वज्र का विवाह विनयवती नाम की कन्या के साथ हुआ। सेठ धनसार जीवन को क्षणभंगुर मानता था, अतः उसने अपने स्थान पर पुत्र को स्थापित किया और वह धर्माराधना करने लगा। कुछ समय पश्चात् धनसार सेठ की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु होने से वज्र खूब विलाप करने लगा। शोक से पीड़ित वज्र ने पिता का अन्तिम-संस्कार किया। स्वजनों द्वारा निरन्तर सांत्वना देने पर जब वज्र अपने पिता के शोक के भार से मुक्त हुआ, तब कुटुम्ब का परिपालन एवं दानादि धर्म-क्रिया में प्रवृत्ति करने लगा।
759 संवेगरंगशाला, गाथा २५७०-२६५६.
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