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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 333
ताराचन्द्र के शरीर को रोगों से ग्रसित देखकर विद्याधर ने कहा- “अरे महाशय! तुम इन मुनि के चरणों को स्पर्श करके क्यों नहीं इस रोग को दूर कर लेते हो?" ताराचन्द्र ने उसी क्षण मुनि के चरणों को स्पर्श किया और उसकी काया कंचन के समान निर्मल बन गई। उसे पुनः नया जीवन मिल गया। फिर वह मुनि की स्तुति करते हुए कहने लगा- “हे मुनिश्वर! अब आप ही मेरे माता-पिता हो, अतः मेरे करने योग्य कार्य की आज्ञा दीजिए।" तब मुनि ने उसे श्रावक के बारह व्रतों को समझाते हुए सद्धर्म का परिचय दिया। ताराचन्द्र ने श्रद्धा से शुद्ध धर्म को स्वीकार किया। फिर वे तीनों वहाँ से अन्यत्र चले गए। विद्याधर ने ताराचन्द्र को विष निवारण की औषधि देकर उसे निगल जाने को कहा। तत्पश्चात् वह युगल आकाश में उड़ गया। औषधि लेकर ताराचन्द्र रत्नपुर नगर में पहुंचा।
उसी नगरी में मदन-मंजूषा नाम की वेश्या ने ताराचन्द्र को देखा। उसके रूप पर आकर्षित हुई वेश्या ने अपनी माता को कहकर उसे अपने घर में रख लिया। बहुत समय व्यतीत होने के पश्चात् माँ ने ताराचन्द्र को छोड़ने के लिए पुत्री को विविध प्रकार से समझाया, परन्तु वह उसके बिना मर जाने की बात कहने लगी, तब माता ने जहर द्वारा दो बार ताराचन्द्र को मारने का प्रयास किया, पर औषधि के प्रभाव से वह सफल नहीं हो सकी। एक दिन वह अम्मा (वेश्या) दासियों के साथ इधर-उधर टहलती हुई समुद्र-किनारे पहुँची। वहाँ परदेश से आए हुए एक जहाज को देखकर वह विचार करने लगी कि ताराचन्द्र को जहाज में चढ़ा दिया जाए, तो पुत्री प्राण-त्याग नहीं करेगी।
इस प्रकार विचार कर उसने जहाज के मालिक से एकान्त में बातचीत की और दासियों के द्वारा रात्रि में ताराचन्द्र को जहाज में चढ़वा दिया। मंगलरूप वाद्ययन्त्र बजाते हुए जहाज का चलना प्रारम्भ हुआ। उन वाद्यों की ध्वनि से ताराचन्द्र की आँखें खुली और वह इधर-उधर देखकर विचार करने लगा- मैं कहाँ हूँ? यह कौन-सा देश है? जब अचानक उसे समुद्र दिखाई दिया, तब उसे उस वेश्या की चालाकी समझते देर नहीं लगी। प्रातःकाल ताराचन्द्र जहाज के स्वामी से मिला। वहाँ कुरुचन्द्र को देखकर ताराचन्द्र अपने मित्र को तुरन्त पहचान गया। मित्र ताराचन्द्र को आलिंगन कर कुरुचन्द्र ने पूछा- “तू जहाज में किस प्रकार नआया? श्रावस्ती से निकलकर इतना समय कहाँ व्यतीत किया?" ताराचन्द्र ने उसे
अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया, और घर में पिताजी, माताजी आदि सभी की कुशलक्षेम पूछी। कुरुचन्द्र ने भी ताराचन्द्र को अपने जीवन का सर्व वृत्तान्त कह सुनाया और प्रसन्नचित्त बना वह कहने लगा- "हे मित्र! मेरा रत्नपुर आना कितना फलदायक हुआ है, जिससे तू आज मुझे अचानक मिल गया।"
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