________________
314 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
श्रेष्ठ परिणामों से युक्त व्यक्ति एक लक्ष्यवाला हो, तो उसके लिए क्या दुःसाध्य है, अर्थात् कठिन परिस्थितियों में भी उत्तम भावों से संलेखना ग्रहण करने से व्यक्ति मोक्ष के सुख को प्राप्त करता है।
आकस्मिक रूप से मृत्यु के सामने उपस्थित होने पर सागारी संथारा ग्रहण करने के सम्बन्ध में प्रस्तुत कृति में सुकौशलमुनि की कथा दी गई है। आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा प्रस्तुत यह कथानक हमें मरणसमाधि, संस्तारक और भक्तपरिज्ञा नामक प्राचीन ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत कथानक आवश्यकसूत्र में भी उपलब्ध होता है । हमारी दृष्टि में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कथानक को सम्भवतः समाधिमरण से सम्बन्धित संस्तारक, मरणसमाधि, भक्तपरिज्ञा, आदि प्राचीन ग्रन्थों से ही ग्रहण किया होगा । जैन - परम्परा में यह कथानक विशेष रूप से प्रचलित रहा है, यही कारण है कि परवर्तीकाल में उत्तराध्ययन सूत्र की कमलसंयम की वृत्ति में भी इस कथानक का उल्लेख मिलता है।
जहाँ तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है, प्रस्तुत कथानक हमें भगवती आराधना में भी उपलब्ध होता है, यद्यपि भगवती आराधना में यह कथानक अति संक्षिप्त रूप में मात्र एक गाथा में दिया गया है। उसमें यह बताया गया है कि सिद्धार्थ राजा के प्रिय पुत्र सुकौशलमुनि को पोग्गिलगिरि नामक पर्वत पर अपनी पूर्वजन्म की माता व्याघ्री के द्वारा खाए जाने पर भी वे उत्तम अर्थ ( समाधिमरण ) को प्राप्त हुए। श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्पराओं में इस कथा के सम्बन्ध में यह अन्तर देखा जाता है कि जहाँ जिनचन्द्रसूरि ने सुकौशलसूरि के पिता का नाम कीर्तिधर बताया है, वहीं भगवती आराधना में उनका नाम सिद्धार्थ बताया गया है। दूसरे, भगवती आराधना के फलटन से प्रकाशित पूर्व संस्करण में मौग्गिलगिरि का ही उल्लेख है, अतः फलटन वाले संस्करण में जो पोग्गिलगिरि पाठ दिया गया है, वह अशुद्ध प्रतीत होता है। इन उल्लेखों से यह निश्चित होता है कि जैन- परम्परा में प्रस्तुत कथानक ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पूर्व भी प्रचलित रहा है और जिनचन्द्रसूरि ने उसे ही प्रस्तुत कृति में विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org