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310 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
अध्याय - ५
आराधना-सम्बन्धी कथाओं का तुलनात्मक-अध्ययन
संवेगरंगशाला मूलतः आराधना से सम्बन्धित ग्रन्थ है, किन्तु इसके कर्ता आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने ग्रन्थ की विषय-वस्तु जनसामान्य को सम्यक् रूप से समझ में आ जाए, इस दृष्टिकोण से प्रत्येक प्रसंग पर पूर्व-परम्परा में उल्लेखित विभिन्न कथाएँ प्रस्तुत की हैं। कथा के दो लाभ होते हैं- एक तो साधक को उस आराधना के सम्बन्ध में एक दृढ़निष्ठा होती है। वह यह मानने लगता है कि पूर्व में भी आराधकों ने इस प्रकार की साधना की है, अतः मुझे भी इस साधना से विचलित नहीं होना चाहिए। कथा का दूसरा लाभ यह होता है कि कथा के माध्यम से सामान्य पाठक भी उस साधना के महत्व और मूल्य को सम्यक् प्रकार से समझ लेता है। यही कारण है कि संवेगरंगशाला में साधनापरक विषय-विवेचन के साथ-साथ कथाओं का अति विस्तार से उल्लेख हुआ है।
जहाँ संवेगरंगशाला की पूर्व कृतियों, जैसे- मरणविभक्ति, भगवतीआराधना, प्राचीन आचार्यकृत आराधनापताका, वीरभद्रकृत आराधनापताका, आदि ग्रन्थों में हमें मात्र कथाओं के संकेत मिलते हैं, वहीं इस संवेगरंगशाला में विस्तार से कथाएँ वर्णित की गई हैं। संवेगरंगशाला के ८० प्रतिशत भाग में कथाएँ वर्णित हैं।
प्रस्तुत अध्याय में हमनें जो कथाएँ प्रस्तुत की हैं, उसका उद्देश्य कथा से परिचित कराना नहीं, क्योंकि हम यह मानते हैं कि एक शोधकार्य में कथा-वर्णन अधिक महत्व नहीं रखता है; इसीलिए सर्वप्रथम तो हमने कथाओं को अपने सन्दर्भ के साथ अत्यन्त संक्षिप्त में ही उल्लेखित किया है। दूसरे, शोध की अपेक्षा से हमने कथाओं के मूल स्रोतों को देखने का प्रयास किया है। इसमें भी विशेष रूप से यह जानने का प्रयास किया है कि ये कथाएँ आगम और आगमिक-व्याख्याओं तथा समाधिमरण से सम्बन्धित ग्रन्थों में किस रूप में
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