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180 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
उन दोषों की आलोचना किए बिना मरण को प्राप्त होता हो, तो ऐसे मरण को अन्तःशल्यमरण कहते हैं।"362
___ भगवतीआराधना के अनुसार विचित्र दोषों से युक्त जीव अपने दोषों की आलोचना किए बिना ही मरण को प्राप्त होता है, तो उसके मरण को सशल्यमरण नाम से अभिहित किया जाता है। यह मरण संयत, संयतासंयत और अविरत-सम्यग्दृष्टि को होता है।363
७. तशवमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार जो जीव अन्तर में शल्य रखकर मरण को प्राप्त होता है, वह जीव महाभयंकर संसार-अटवी में लम्बे समय तक परिभ्रमण करता है। तत्पश्चात् पुनः, मनुष्य अथवा तिर्यच-भव के योग्य आयुष्यकर्म को बांधकर मरनेवाले ऐसे मनुष्य एवं तिर्यच का मरण तद्भवमरण कहलाता है। 364 समवायांगसूत्र के अनुसार जो जीव वर्तमान भव में जिस आयुष्यकर्म के दलिकों को भोग रहा है, वह उसी भव के योग्य आयुष्य को बांधकर यदि मरता है, तो वह मरण तद्भवमरण कहलाता है। यह मरण मनुष्य या तिर्यच-गति के जीवों का ही होता है, देव या नारकों का नहीं होता है, क्योंकि देव या नारकी मरकर पुनः देव या नारकी नहीं हो सकता- ऐसा नियम है। उनका जन्म मनुष्य या तिर्यंच-पंचेन्द्रिय में ही होता है।365
भगवतीआराधना के अनुसारं भवान्तर में उसी भव की प्राप्तिपूर्वक मरण तद्भवमरण कहलाता है। 366 आगे, संवेगरंगशाला में यह बताया गया है कि अकर्मभूमि के मनुष्य, अकर्मभूमि के तिर्यंच, देव और नारकी के जीवों को छोड़कर शेष जीवों में तद्भवमरण सम्भव होता है।
८. बालमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार तप, नियम, संयमादि से रहित अविरत जीवों की मृत्यु को बालमरण कहा गया है। 367 समवायांगसूत्र में अविरत या मिथ्यादृष्टि जीवों को बाल कहा गया है। प्रथम गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक जीवों का मरण बालमरण कहलाता है। 368 भगवतीआराधना के
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362 समवायांगसूत्र, पृ. ५३. 363
भगवतीआराधना, पृ. ५८. 364 संवेगरंगशाला, गाथा ३४५३-५४.
समवायांगसूत्र, पृ. ५३ । भगवतीआराधना, पृ. ५३. संवेगरंगशाला, गाथा ३४५६ समवायांगसूत्र, पृ. ५३.
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