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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 303
लेश्या की विशुद्धि के माध्यम से क्षपक समस्त प्रकार के कषायों से मुक्त होकर समताभाव को प्राप्त करता है और भाव-विशुद्धिपूर्वक क्रमशः पीत, पद्म और शुक्ल-इन तीन शुभ लेश्याओं में परिणमन करता हुआ, उपशम या क्षपक-श्रेणी पर आरोहण करता है। इन शुभ लेश्याओं की सहायता से क्षपक समस्त पापों का सर्वथा के लिए त्याग कर देता है, जिससे उसकी चित्तवृत्ति विशुद्ध हो जाती है।
२. भाव लेश्या : कषायों के उदय से रंगीन बनी मन-वचन-कग्या की प्रवृत्ति को भाव-लेश्या कहते हैं। कषायों की तीव्रता एवं मन्दता के अनुसार भाव-लेश्या में वैविध्य होता है। प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ कषायों की तीव्रता के कारण होती हैं, इसलिए ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्या कहलाती हैं। इनके कारण नारक, आदि अशुभ योनियों की प्राप्ति होती है। शेष तीन लेश्याएँ कषाय की मन्दता के कारण होती हैं, इसलिए ये तीनों लेश्या धर्म या शुभ लेश्याएँ कहलाती हैं। इसके कारण जीव को स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
संवेगरंगशाला में छः लेश्याओं के भावों को जामुन खाने की इच्छावाले छ: पुरुषों के परिणामों, अर्थात् मनोभावों की विभिन्नता से समझाया गया है।
किसी एक जंगल मे भूख से व्याकुल छः पुरुष भ्रमण कर रहे थे। वहाँ उन्हें फलों से लदा जामुन का एक विशाल वृक्ष दिखा, जिस पर पके हुए जामुन के फल लगे थे, जिसकी अनेक छोटी-बड़ी टहनियाँ विस्तार से फैली हुई थीं। सम्पूर्ण वृक्ष जामुन के गुच्छों से लका हुआ था। पवन के कारण पके फल नीचे गिरे हुए थे। इस प्रकार यह वृक्ष उन पुरुषों के लिए मानो साक्षात् कल्पवृक्ष ही था। उस वृक्ष को देखकर सबके मन में उन अमृतफलों को खाने की इच्छा हुई, परन्तु फलों को किस प्रकार खाया जाए? इस विचार से एक पुरुष ने कहा- “वृक्ष के ऊपर चढ़ने से प्राण जाने का सन्देह हो सकता है, अतः वृक्ष को मूल से काट दिया जाए।" तब दूसरे ने कहा- "इस सम्पूर्ण वृक्ष को काटने से क्या लाभ? हमें फल ही खाने हैं, तो इसकी सिर्फ बड़ी-बड़ी शाखाएँ काटी जाएं।" तीसरे ने कहा"बड़ी शाखाओं को तोड़ने से भी क्या प्रयोजन? छोटी शाखाओं से ही फल प्राप्त हो सकते हैं।" चौथे ने कहा- "नहीं! नहीं। फल के गुच्छे तोड़ लेना ही पर्याप्त होगा।" पाँचवे ने कहा- "हमें तो केवल पके फल खाने हैं, तो गुच्छे तोड़ने से क्या लाभ? इसमें तो कच्चे एवं पके- सभी फल होंगे, इसलिए हमें केवल पके हुए फलों को ही तोड़ना चाहिए।" तब अन्त में छठवाँ पुरुष करुणार्द्र होकर कहने लगा- “कच्चे अथवा पके फल को तोड़ने की आवश्यकता ही क्या है? जितने
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