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302 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
आराधनापताका 733 एवं भगवतीआराधना 734 के अनुसार कषाय से अनुरक्त मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं।
संवेगरंगशाला के अनुसार मनोभावों की विविधता के परिणाम ही लेश्या हैं। लेश्या छः प्रकार की होती है-१. कृष्णलेश्या २. नीललेश्या ३. कापोत-लेश्या ४. तेजोलेश्या ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या। ये छःहों लेश्याएँ विविध मनोभावों वाली होती हैं तथा कर्मदल के सान्निध्य से स्फटिकमणि के सदृश निर्मल स्वभाववाले जीव को भी मलिन कर देती हैं। 735 इनमें प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ और अन्तिम तीन लेश्याएँ शुभ मानी गई हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र6 में इन सभी लेश्याओं के दो-दो भेद किए गए हैं। १. द्रव्यलेश्या एवं २. भावलेश्या। सागारधर्मामृत37 में भी लेश्या के द्रव्य एवं भाव-ऐसे दो भेद करके दोनों के छः-छः भेद किए गए हैं।
१. द्रव्य-लेश्या : शरीर के रंग को द्रव्य-लेश्या कहते हैं। आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए जो पुद्गल-परमाणु लेश्यारूप में परिणमन करते हैं, उन्हें लेश्या कहते हैं। लेश्या वर्ण
रस स्पर्श १. कृष्ण काजल सम काला मृत कुत्ते जैसी अति कटु अति दुर्गन्ध
कर्कश २. नील वैदूर्यमणि सम मरी गाय समान अति तीखा खुरदरा
दुर्गन्ध कबूतर की ग्रीवा सड़ी लाश जैसी कसैला कम कापोत जैसा दुर्गन्ध
खुरदरा ४. तेजस् नवोदित सूर्य सम गुलाब-पुष्प जैसी खट्टा-मीठा कोमल लाल
सुगन्ध :. पद्म कमल-पुष्प जैसा । कमल-पुष्प जैसी मीठा मृदु
गन्ध
नीला
सुगन्ध
६. शुक्ल शंख के समान
श्वेत
केवड़ा जैसी सुगन्थ अति मधुर
अति मृदु
आराधनापताका, ८३६-८४५. 734 भगवतीआराधना, गाथा १९००-१६०४.
सविगरंगशाला, गाथा ६६६६-६६६७.
उत्तराध्ययन, ३१/३४, गाथा ४-७. 737 सागारधर्मामृत, पृ. १२१.
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