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300 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री है- माया का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि ये असत्य की जननी, शील वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी, मिथ्यात्व और अज्ञान की जन्मभूमि तथा दुर्गति का कारण है। माया के चार भेद इस प्रकार हैं :
अनन्ताबनुबन्धी-माया - बांस की जड़ के समान कुटिल. अप्रत्याख्यानी-माया - भैंस के सींग के समान कुटिल. प्रत्याख्यानी-माया - गोमूत्र की धारा के समान कुटिल.
संज्वलन-माया - बांस के छिलके के समान कुटिल. ४. लोभ : संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार कहते हैं- लोभ से तृष्णा बढ़ती है तथा स्वप्न में भी उसकी तृप्ति नहीं होती है। लोभ अखण्ड व्याधि है, स्वयंभूरमण समुद्र के समान किसी तरह शान्त नहीं होनेवाला है। जैसे- ईधन से अग्नि बढ़ती है, वैसे- लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। मोहनीयकर्म के उदय से चित्त में जो तृष्णा या लालसा उत्पन्न होती है, वही लोभ कहलाती है।
लोभ के चार प्रकार हैं :
१. तानुबन्धी-लोभ - मजीठिया रंग के समान; जो छूटे नहीं, वैसा लोभ.
२. अप्रत्याख्यानी-लोभ - गाड़ी के पहिए के औगन के समान, मुश्किल से छूटने वाला लोभ.
३. प्रत्याख्यानी-लोभ - कीचड़ के समान, प्रयत्न करने पर छूटनेवाला लोभ.
___ ४. संज्वलन-लोभ - हल्दी के समान, शीघ्रता से दूर हो जानेवाला
लोभ 28
कषायजय :- साधक को अपनी आत्म-साधना या आत्म-विकास के लिए वासनाओं एवं कषायों का त्याग करना या उनसे ऊपर उठना अनिवार्य होता है। जब तक व्यक्ति कषायों को त्यागकर इनसे ऊपर नहीं उठता है, तब तक वह
724 संवेगरंगशाला, गाथा ५६६७ 725 योगशास्त्रप्रकाश/४, गाथा-१४.
८० कर्मग्रंथ, १/अ, गाथा - २०. 727 संवेगरंगशाला, गाथा ६०२६-६०२७. 728 कर्मग्रन्थ, १/अ, गाथा २०.
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