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298 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
अहित-भावना है, अन्तिम दो में अपनी स्वार्थ-साधना का लक्ष्य है। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया-तीनों द्वेषरूप हैं, केवल लोभ अकेला रागात्मक है, ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से क्रोध ही द्वेषरूप है, शेष तीनों कषाय को एकान्तरूप से न रागप्रेरित, न द्वेषप्रेरित कहा जा सकता है, वे रागप्रेरित होने से रागरूप एवं द्वेषप्रेरित होने से द्वेषरूप होती हैं। इस प्रकार राग-द्वेष से कषायों का जन्म होता है, और राग-द्वेष का मूलभूत कारण मोह है। इसे हम अज्ञान अथवा अविवेक भी कह सकते हैं, अतः मोह, अज्ञान, अविवेक, आदि मिथ्यात्वरूप हैं।
कषायों के दो मुख्य भेद हैं- कषाय एवं नोकषाय। तीव्र आवेगों को कषाय एवं मन्द आवेगों को नोकषाय कहा जाता है। अन्य अपेक्षा से कषाय के चार भेद भी हैं- १. क्रोध २. मान ३. माया और ४. लोभ। नोकषाय (उपकषाय) के नौ भेद इस प्रकार हैं :- १. हास्य २. रति ३. अरति ४. शोक ५. भय ६. घृणा ७. स्त्रीवेद ८. पुरुषवेद और ६. नपुंसकवेद। यहाँ वेद का अर्थ कामवासना
१. क्रोध : संवेगरंगशाला में क्रोध को अपूर्व अग्नि की उपमा दी गई है, क्योंकि अग्नि मात्र शरीर को जलाती है, जबकि क्रोध देह एवं चित्त- दोनों को जलाता है। क्रोध एक वैरी या शत्रु है, क्योंकि शत्रु तो एक जन्म में अनिष्ट करता है, लेकिन क्रोध जन्म-जन्मान्तर में अनिष्ट करता है। क्रोध एक ऐसा मानसिक-उत्तेजक आवेग है, जिसके उत्पन्न होते ही व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक-संतुलन बिगड़ जाता है, उसकी विचार-क्षमता एवं तर्क-शक्ति शिथिल हो जाती है। 20 कर्मग्रन्थ में क्रोध के आवेग की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर चार भेद किए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:
१. अनन्तानुबंधी-क्रोध (तीव्रतम) :- पत्थर में पड़ी दरार के समान क्रोध, जो किसी के प्रति एक बार उत्पन्न होने पर जीवनपर्यन्त बना रहे, कभी समाप्त न हो।
अप्रत्याख्यानी-क्रोध (तीव्रतर)-सूखते हुए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार जैसे आगामी वर्षा होते ही मिट जाती है, वैसे ही अप्रत्याख्यानी-क्रोध एक वर्ष से अधिक स्थाई नहीं रहता है, समझाने पर शान्त हो जाता है।
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विशेषावश्यकभाष्य, २६६८-२६७१. 720 संवेगरंगशाला, गाथा - ५६१०-५६१२. 721 कर्मग्रन्थ - १/१६.
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