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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 283
समुदायरूप लोक को न तो किसी ने बनाया है, और न ही कोई इसे धारण किए हुए है और न कोई इसका विनाश ही कर सकता है। इस लोक में यह आत्मा अनादिकाल से भ्रमण करती हुई अनन्त दुःख सह रही है।"668 सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है; जहाँ इस आत्मा का जन्म न हुआ हो। हे आत्मन्! तू इस में ही क्यों रच-पच रहा है। यदि कर्मो के बन्धन से बचना है, तो इससे अपनत्व तोड़ो, राग छोड़ो, इसी में ही भला है।"609
"इस जगत में तेरा कुछ भी नहीं है। जगत् अलग है और तू जलग हैयह स्पष्ट प्रतिभासित होता है, क्योंकि जगत् षड्द्रव्यों का आवास है, षड्द्रव्यमयी है और तू चैतन्यमूर्ति भगवान् आत्मा है।"670
__ इस प्रकार लोक-भावना की विषयवस्तु का चित्रण तत्त्वार्थसूत्र, 671 कार्तिकेयानुप्रेक्षा,672 ज्ञानार्णव 673, भगवतीआराधना, वृहदद्रव्यसंग्रह, आदि अनेक जैन-ग्रन्थों में किया गया है। लोक-भावना में सम्पूर्ण लोक के स्वरूप का चिन्तन समाहित है, किन्तु इस चिन्तन की दिशा भेदविज्ञानपरक और वैराग्य प्रेरक होना चाहिए। भगवतीआराधना में इस बात को सिद्ध करते हुए कहा गया है- “यद्यपि लोक अनेक प्रकार का है, अर्थात् लोक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं; तथापि यहाँ लोक शब्द से जीवद्रव्य को ही लोक कहा जा रहा है।"674
वृहद्र्व्यसंग्रह में लोक-भावना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है"जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकते हैं, उसी प्रकार आदि, मध्य और अन्त-रहित शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाववाले परमात्मा के सम्पूर्ण निर्मल केवलज्ञान में सभी पदार्थ आलोकित होते हैं; दिखाई देते हैं, ज्ञात होते हैं - इस कारण यह आत्मा ही निश्चयलोक है, अथवा इस निश्चयलोकरूप निजशुद्धात्मा का अवलोकन ही निश्चय से लोक-भावना है।"675
लोकभावना में लोक के स्वरूप एवं जीवादि पदार्थो का चिन्तन करते हुए मुख्यतः चैतन्यलोक का चिन्तन करना है। षड्द्रव्यों में यह आत्मा ही लोक का
00 पण्डित दौलतरामजी, छहढाला, पंचमढाल, छन्द १२. 669 कविवर बुधजनकृत बारह भावना.
० भैया भगवतीदासकृत बारह भावना. 671 तत्त्वार्थ सूत्र ३/१. 672 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २८३. 673 ज्ञानार्णव (लोकभावना), २.
भगवतीआराधना गाथा १७६२ की उत्थानिका, पृष्ठ ७६८. वृहद्रव्य संग्रह, पृष्ठ १६२-१६३.
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