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286 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री हे सुज्ञ! बोध को प्राप्त करें, क्योंकि मृत्यु के बाद बोध प्राप्त होना कठिन है। बीती हुई रात्रियाँ पुनः नहीं लौटती और फिर से मनुष्य-जन्म मिलना भी दुर्लभ है।680
जैन-दर्शन में चार वस्तुओं की उपलब्धि अत्यन्त कठिन (दुर्लभ) कही गई है- (१) संसार में प्राणी को मनुष्यत्व की प्राप्ति (२) धर्मश्रवण (३) शुद्धश्रद्धा और (४) संयममार्ग में पुरुषार्थ। "मरणविभक्ति के अनुसार जीव मानवपर्याय, अच्छा वंश, सुन्दर रूप, बल, श्रद्धा, दर्शन, ज्ञान, आदि प्राप्त कर सकता है, लेकिन बोधि की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है।681
इस तरह हम देखते हैं कि एक बार मानवपर्याय कठिनता से प्राप्त भी हो जाए, लेकिन उत्तम बोधि-बीज को प्राप्त करना अत्यन्त ही दुर्लभ है। बोधि को प्राप्त किए बिना साधक की मुक्ति असम्भव है, अतः साधक को बोधि या ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। १२. धर्माचार्य-दुर्लभ-भावना :
संवेगरंगशाला में धर्म एवं धर्माचार्य (धर्म के दाता) की दुर्लभता का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार जगत् में रत्नादिक और उसके दातार अल्प होते हैं, उसी प्रकार धर्मार्थी और उस धर्म के दाता, अर्थात् उपदेशक भी अल्प होते हैं। इसमें कषायरहित, विशिष्ट ज्ञान से युक्त साधु को ही निश्चय से भाव साधु एवं इन गुणों से रहित साधु को असाधु कहा गया है। इसमे साधु को स्वर्ण के समान उपमा देकर बताया है कि जैसे स्वर्ण १. विषघातक २. रसायन ३. मंगलरूप ४. विनीत ५. प्रदक्षिणावर्त ६. भारी ७. अदाह्य और ८. अकुत्सित-इन आठ गुणों से युक्त होता है, उसी प्रकार साधु भी- (१) मोहरूपी विष का घात करनेवाला (२) मोक्षरूपी रसायन का उपदेश करनेवाला (३) गुणों से मंगलस्वरूप (४) मन-वचन- काया के योग से विनीत तथा (५) मार्गानुसारी होने से प्रदक्षिणावर्त होता है। पुनः, (६) गम्भीर होने से गुरु (भारी) होता है (७) क्रोधरूपी अग्नि से नही जलनेवाला और (८) शील का पालन करनेवाला होने से दोषों से सदा रहित होता है। इस तरह संवेगरंगशाला में स्वर्ण के गुण के समान साधु के गुण कहे गए हैं। 82
इसमें धर्मोपदेशक गुरु के गुणों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि वह स्वशास्त्र-परशास्त्र को जानकार हो, संवेगी हो, दूसरों को संवेग प्रकट
680 सूत्रकृतांग, २/१/१.
उत्तराध्ययन, ३/१. 682 संवेगरंगशाला, गाथा क्र. ९८४४-८८५०
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