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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 295
जीवों के श्रेष्ठ शरणभूत, पूजनीय, शाश्वत सुखस्वरूप, मंगल का घर एवं मंगल के कारणभूत, ज्ञानमय (ज्ञानात्मक शरीरवाले) ऐसे सिद्ध भगवन्तों का शरण स्वीकार कर, क्योंकि वे अरूपी, अनन्त, अक्षय, अचिन्त्य, अजय, अव्याबाध, अछेद्य, अभेद्य, पुनः संसारी नहीं होनेवाले परमेश्वर शरण स्वीकार करने के योग्य हैं। 710
साधु का स्वरूप एवं उनकी शरण स्वीकारने का निर्देश देते हुए संवेगरंगशाला में कहा गया है- जिन्होंने जीव आदि नौ तत्त्वों को जाना है, जो शुन्द्र क्रिया में परायण तथा सारणा, वारणा, आदि करने में कुशल हैं, पुनः जो प्रतिलेखन, प्रमार्जना, आदि क्रियाओं तथा दसविध सामाचारी के प्रति अत्यन्त रागी है, विविध तप करनेवाले हैं, जो पाँच समिति का पालन करनेवाले तथा पांच आचारों को धारण करनेवाले हैं, जो पापों का उपशमन करनेवाले, विषय- कषायों को जीतनेवाले, निद्रा, मत्सर एवं मद के विजेता और परीषहों को सहन करनेवाले हैं, हे मुनि ! तू ऐसे साधु भगवन्तों की शरण स्वीकार कर । पुनः आगे लिखा गया है- मान-अपमान, सुख - दुःख, शत्रु-मित्र में समान चित्तवाले, स्वाध्याय में तत्पर, आश्रवद्वार को बन्द करनेवाले, मन-वचन एवं काय से गुप्त प्रशस्त लेश्यावाले-ऐसे श्रमण भगवन्तों की शरण कल्याणकारण है। 71
जिनधर्म का स्वरूप एवं उसकी शरण स्वीकार करने का निर्देश :
सर्व अतिशयों का निधानरूप, अन्य मत के समस्त धर्मशासनों में मुख्य, निरूपम सुख का कारण, दुःख से पीड़ित जीवों को दुन्दुभिनाद सदृश आनन्द देनेवाला, रागादि का नाश करनेवाला, स्वर्ग और मोक्ष के सुख का प्रदाता ऐसे धर्म का जिनेश्वर भगवन्तों ने मुनिजनों को उपदेश दिया है। वह जिनधर्म मोह का नाश करनेवाला है, आदि - अन्त से रहित, शाश्वत, सर्व जीवों का हितकर, अमूल्य, अमित, अजित, महाअर्थवाला, महामहिमावाला, महाप्रकरणयुक्त, शुभ- आशय का कारण, समस्त क्लेशों का नाशक, पदार्थों के विषय में हेय, उपादेय का विवेक कराने में समर्थ है।
वह दीन-दुःखी को आश्वासन देने में आशीर्वादतुल्य, संसार-समुद्र में डूबते जीवों के लिए द्वीप के समान, इच्छा से अधिक देनेवाला होने से चिन्तामणि से भी अधिक मूल्यवान् पिता के समान हितकारी, माता के समान वात्सल्यकारी, बन्धु के समान गुणकारक, मित्र के समान द्रोह नहीं करनेवाला, विश्वसनीय एवं लोक में अति दुर्लभ, अंग-प्रविष्ठ, अनंग-प्रविष्ठ- उभय प्रकार के श्रुतरूप धर्म का
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संवेगरंगशाला, गाथा ८२६२-८२७५.
संवेगरंगशाला, गाथा ८२७६-८२६६.
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