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294 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री और संघ के समस्त सदस्यों को उसकी पिच्छिका दिखाकर कहते हैं कि वह क्षपक आप सबसे क्षमा माँगता है।07
सागारधर्मामृत में कहा गया है कि राग या द्वेष से अथवा ममत्वभाव से जिसे भी दुःख दिया हो, या कष्ट पहुँचाया हो, उससे मन-वचन-काया से क्षमा माँगें तथा जिसने अपने से वैर किया हो, अपने को कष्ट पहुँचाया हो, उसे भी मन-वचन-काया से क्षमा प्रदान करे।708 समाधिशरण में चार शरण की स्वीकृति :
संवेगरंगशाला में निर्यापक-आचार्य छ: व्रतों का सम्यक परिपालन करने वाले क्षपक को कहते हैं- हे सुविहित! अब तू अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म-इन चार की शरण को स्वीकार कर। इसमें अरिहन्त का स्वरूप बताते हुए वे कहते हैं- जिन्होंने ज्ञानावरणीय आदि चार घातीकों को क्षय कर दिया है और कभी नष्ट नहीं होनेवाले अनन्तज्ञान एवं अनन्तदर्शन को प्राप्त किया है तथा संसाररूपी अटवी में परिभ्रमण के कारणों को समाप्त करके अरिहन्त-पद को प्राप्त किया है, ऐसे जन्म-मरण से रहित एक हजार आठ लक्षण से युक्त, सर्वगुणों से शोभित, सर्वजीवों के हितस्वी, परमबन्धु, परमपुरुष, परमात्मा एवं परमेश्वर, परम मंगलभूत, तीन लोक के भूषणरूप अरिहन्त परमात्मा हैं।
हे मनि! वे तीन लोक की लक्ष्मी के तिलक के सदृश हैं, मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को मिटाने में वे सूर्य के समान हैं, मोहमल्ल को जीतने में महामल्ल के तुल्य हैं। वे महासत्व, तीनों लोकों में पूज्य, अप्रतिहत, अजेय एवं अतुल तेज के धारक हैं। ऐसे परम कारुणिक एवं प्रकृष्ट जयवाले अरिहन्तों की तू शरण स्वीकार
कर।७०६
इसी प्रकार सिद्धों के स्वरूप को जानकर उनकी शरण स्वीकार कर। जो मनुष्य-जन्म में संयम-जीवन स्वीकार कर आश्रवों को रोककर, पण्डितमरण से मृत्यु प्राप्तकर, संसार-पारेभ्रमण को दूर कर कृतकृत्य हो सिद्ध पद को प्राप्त हैं, जो निर्मल केवलज्ञान से युक्त हैं, संसार से मुक्त हैं और जिन्होंने सुखरूपी लक्ष्मी का वरण कर सर्व दुःखों का अन्त कर दिया है, ऐसे वे सिद्ध परमात्मा हैं।
हे मुनि! जिनके सर्वकर्मों के आवरण नष्ट हो गए हैं, जो जन्म-जरा-मरण से पार हो गए हैं, तीन लोक के मस्तक के मुकुटरूप एवं सर्व
707 भगवतीआराधना - ७०४. 708 सागारधर्मामृत, गाथा ३२.
संवेगरंगशाला, गाथा ८२४७-८२६,
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