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292 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
आराधनापताका, 703 आदि समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों में दुष्कृत-गर्दा एवं सुकृत-अनुमोदन का उल्लेख मिलता है। क्षमापना :
संवेगरंगशाला के क्षमापना-द्वार में सर्वप्रथम गुरु एवं शिष्य के द्वारा परस्पर क्षमा मांगने का निर्देश किया गया है। इसमें कहा गया है कि समाधिमरण के इच्छुक आचार्य को अपने मुनि-समुदाय को बुलाकर मधुर वाणी में इस प्रकार कहना चाहिए- हे देवानुप्रिय! प्रतिफल साथ रहनेदालों के साथ निश्चय से पूक्ष्म या स्थूल रूप से अप्रीति होना स्वाभाविक है। आहार, पानी, वस्त्र, पात्र तथा अन्य कोई कल्पनीय धर्मोपकरण मेरे पास विद्यमान होने पर भी मैंने तुम्हें नहीं दिए हों तथा उसे दूसरों को देने से रोका हो, तुम्हारे द्वारा पूछने पर भी सूत्र एवं अर्थ का सम्यक् प्रकार से अध्ययन नहीं करवाया हो, या भली प्रकार से समझाया न हो, कठोर वचन से बारम्बार प्रेरणा तथा तर्जना की हो तथा सद्गुणों की प्राप्ति हेतु किसी कारणवश उस समय तुम्हारे उत्साह में वृद्धि न की हो, तो शल्य एवं कषायरहित होकर मैं उन सर्व अपराधों की तुमसे क्षमायाचना करता हूँ। मुनि-जीवन में इससे अधिक क्या कहा जाए? फिर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से मेरे द्वारा जो कुछ भी अनुचित हुआ हो, उन सबकी त्रिविध-त्रिविध रूप से क्षमा मांगता हूँ।
इस तरह गुरु को क्षमा याचना करते हुए देखकर शिष्यों को अपनी आँखों से आँसू गिराते हुए गद्गद् स्वर में इस प्रकार कहना चाहिए-हे स्वामी! सर्वप्रकार के कष्टों को सहन करते हुए भी आपने हमेशा हमारा सम्यक्-चारित्र द्वारा पालन-पोषण किया है, इस तरह आप हमारे उपकारी होते हुए भी "तुम सब मुझे क्षमा करना"- ऐसा यह वचन क्यों कहते हो? आप तो हमारे पिता के तुल्य हो, अप्राप्त गुणों को प्राप्त कराने वाले हो, एकान्तहित करनेवाले हो, मुक्तिपुरी ले जानेवाले एक श्रेष्ठ सार्थवाह हो, प्रिय बन्धु हो, संयम में सहायक हो, जगत् के जीवों के रक्षक हो तथा भयभीत को निर्भय बनानेवाले हो, फिर आप उपयोग के अभाव में तथा प्रमादवश किसी का अनुचित चिन्तन भी कैसे कर सकते हो? एकान्तहित करनेवाले आपको भी क्षमा मांगने योग्य कुछ नहीं हो
698 आत्मविशोधिकुलक, गाथा +२४. 699 चतुःशरण, गाथा ७-२५. 10 आतुरप्रत्याख्यान, गाथा, २-३.
कुशलानुबंधि-अध्ययन, गाथा ५५-६३. 702 पर्यन्ताराधना, गाथा ३०-१०६.
आराधनापताका, गाथा २७२-३४६.
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