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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 285
मनुष्यपर्याय मिल भी जाए, किन्तु मनुष्यभव में पुनः उत्तम देश, कुल, स्वस्थ इन्द्रियाँ और स्वस्थ शरीर की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ समझना चाहिए। 676
मान लीजिए बमुश्किलये सभी प्राप्त भी हो जाएं, किन्तु जिस प्रकार आँखों के बिना मुख व्यर्थ है, उसी प्रकार सद्धर्म के बिना मनुष्य - जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है ।
संवेगरंगशाला में यह भी वर्णन किया गया है कि लोक में मनुष्य का आवास (निवास) तीन स्थानों पर ही है, उनमें से अकर्मभूमि और अन्तर द्वीपों में धर्म का अभाव है, अतः वहाँ बोध प्राप्त करना असम्भव है। कर्मभूमि में भी छःखण्ड में से पाँच खण्ड सर्वथा अनार्यदेश हैं; और भरत में जो छठवाँ खण्ड है, वही श्रेष्ठ है। उसमें भी अयोध्या के मध्य से साढ़े पच्चीस देश ही आर्य हैं, शेष सभी अनार्य हैं। इसमें मगधदेश में राजगृही, अंगदेश में चम्पानगरी, बंगदेश में ताम्रलिप्ति, कलिंगदेश में कंचनपुर, आदि साढ़े पच्चीस देशों के नामों का उल्लेख किया गया है। इन्हीं देशों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, आदि के जन्म होते हैं तथा इनमें साधु-साध्वी भगवंतों का विचरण होने से इन क्षेत्रों को ज्ञानादिक गुणयुक्त रत्नों का निधान कहा गया है। 677
साथ ही इसमें यह भी उल्लेख है- हे देवानुप्रिय ! तू बोधि की अति दुर्लभता को जानकर प्राप्त हुई बोधि की प्राप्ति का विचार (चिन्तन) करना, क्योंकि एक बार बोधि खो देने के पश्चात् उसे किसी भी मूल्य में पुनः प्राप्त नहीं कर सकेगा। तूने नरक एवं तिर्यचों के दुःखों को सहन किया तथा परोपदेश से उनके दुःखों को श्रवण किया फिर भी अमूल्य बोधि को ग्रहण नहीं करता है । जैसे रत्न की परीक्षा को नहीं जाननेवाला चिन्तामणि को फेंक देता है, वैसे ही मूढात्मा मुश्किल से मिले हुए उत्तम बोधिरत्न को शीघ्र छोड़ देता है, इसलिए साधक को यह प्रयास करना चाहिए कि जो अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ है, वह पुनः हाथ से न निकल जाए। 678
बोधिदुर्लभता के सम्बन्ध में यही बात तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में भी मिलती है। 679 बोधिदुर्लभता का सन्देश देते हुए परमात्मा महावीर कहते हैं
676 संवेगरंगशाला, गाथा ८७६७-८८००.
677
संवेगरंगशाला, गाथा ८८०१ - ८८१०.
678 संवेगरंगशाला, गाथा ८८१५-८८१७, ८८२०-८८२२.
679 सर्वार्थसिद्धि, ६/७
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