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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 281
कर्मों की अल्पनिर्जरा होती है, जबकि शुभभावों से युक्त जीवों के कर्मों की अधिक निर्जरा होती है।
अन्त में, जलाशय के दृष्टान्त के द्वारा यह बताया गया है कि जिस प्रकार नवीन जल का प्रवेश बन्द कर देने से जलाशय में रहा हुआ पुराना जल गर्मी आदि के ताप से सूख जाता है, उसी प्रकार आश्रव के द्वारों के बन्द कर देने से जीव में रहे हुए पूर्व कर्म तप, त्याग, ध्यान एवं स्वाध्याय, आदि से क्षय हो जाते हैं। 659
निर्जराभावना सम्बन्धी उपलब्ध समग्र चिन्तन को पण्डित दौलतरामजी ने अपनी कृति छः ढाले में इस प्रकार प्रतिपादित किया है- “ समय आने पर जो कर्म निर्जरित होते हैं, उनसे आत्महित का कार्य सिद्ध नहीं होता; तप के द्वारा कर्मों का जो क्षय किया जाता है, उससे ही मोक्षसुख की प्राप्ति होती है । "660 कार्तिकेयानुप्रेक्षा में निर्जरा के कारणों की चर्चा इस प्रकार की गई है- "अहंकार और निदानरहित ज्ञानी के बारह प्रकार के तप से तथा वैराग्य - भावना से निर्जरा होती है। जो साम्यभावरूप सुख में लीन होकर बार-बार आत्म का स्मरण करता है तथा इन्द्रियों और कषायों को जीतता है; उसकी उत्कृष्ट निर्जरा होती है । 2661 निर्जराभावना के स्वरूप और प्रकारों की चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द द्वादशानुप्रेक्षा में इस प्रकार करते हैं: "कर्मबन्ध के प्रदेशों का गलना निर्जरा है और जिन कारणों से संवर होता है, उन्हीं से निर्जरा होती है - ऐसा जिनेश्वर परमात्मा ने कहा है । वह निर्जरा दो प्रकार की होती है। प्रथम तो स्वसमय में ( कर्म की स्थिति पूर्ण होने पर) होनेवाली सविपाक - निर्जरा और दूसरी तप के द्वारा निष्पन्न होनेवाली अविपाक निर्जरा। पहली सविपाक - निर्जरा तो चतुर्गति के सभी जीवों को होती है और दूसरी अविपाक - निर्जरा सम्यग्ज्ञानी व्रतधारियों को ही होती है। 602
इस प्रकार हमें यह ज्ञात होता है कि आश्रव निरोध और संवर - मात्र से ही कर्मों का क्षय नहीं हो जाता है। पूर्व के कर्मों के क्षय के लिए तप की आवश्यकता होती है। कहा भी गया है- सुरक्षित रखा गया धन तब तक खर्च नहीं होता है, जब तक कि उसका उपयोग नहीं किया जाए । आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट रूप से कहते हैं- “ शुभाशुभभाव के निरोधरूप संवर और शुद्धोपयोगरूप योग से युक्त जो जीव अनेक प्रकार के तप करता है, वह नियम से अनेक कर्मों
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संवेगरंगशाला, गाथा ८७६६-८७७५.
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पंडित दौलतरामजी छहढालाः पंचम ढाल, छन्द ११.
661 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १०२, १०४.
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द्वादशानुप्रेक्षा, गाथा ६६-६७.
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