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282 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री की निर्जरा करता है। 663 यही बात मरणविभक्ति, 664 भगवतीआराधना,665 आदि ग्रन्थों में भी कही गई है।
__ संवर के द्वारा नवीन कमों के आगमन को रोका जाता है तथा निर्जरा के द्वारा पूर्व संचित कर्मो का क्षय किया जाता है। संवर मोक्षमार्ग का आरम्भ है
और निर्जरा मोक्षमार्ग की यात्रा है; अतः संवरपूर्वक निर्जरारूप परिणमन ही मोक्ष-मार्ग में आरूढ़ होना है। इस तरह निर्जरा-भावना में निरन्तर प्रयत्नशील रहने से व्यक्ति सर्वकर्मों को क्षय करके कषायों से मुक्त हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है।
१०. लोकस्वरूप भावना :- संवेगरंगशाला में लोकस्वरूप-भावना का चित्रण करते हुए कहा गया है कि लोक की रचना, आकृति, स्वरूप, आदि पर विचार करना लोकस्वरूप-भावना है। इसमें उर्ध्व, तिर्यक् और अधोलोक की स्थिति एवं उनमें रहे हुए सर्व पदार्थों के स्व-पर उपयोगपूर्वक विचार करना होता है। उर्ध्वलोक में देवविमान, तिर्यक्लोक में असंख्यात द्वीप तथा समुद्र और अधोलोक में सात नरक भूमि-संक्षेप में यही लोक का स्वरूप है। ग्रन्थकार ने आगे यह कहा है कि लोक-स्थिति के यथार्थस्वरूप को नहीं जानने वाले जीव स्वकार्य को सिद्ध नहीं कर पाते हैं एवं जो लोक में यथार्थस्वरूप के सम्यग्ज्ञाता होते हैं, वे ही स्वकार्य को सिद्ध करते हैं। इस प्रसंग में संवेगरंगशाला में शिवराजर्षि की कथा दी गई है।666
उत्तराध्ययनसूत्र में लोक का अर्थ बताते हुए कहा गया है- “धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव- ये छः द्रव्य जहाँ पाए जाते हैं, उस स्थानविशेष को, अथवा इन छः द्रव्यों के समुच्चय को ही लोक कहते हैं। लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ ये छ: द्रव्य न हों। षड़द्रव्यों में से आकाश द्रव्य सर्वत्र व्याप्त है और अन्य द्रव्य लोकाकाश में व्याप्त है। आकाश के जितने भाग में छ: द्रव्य स्थित हैं, उतने आकाश-खण्ड को ही लोक कहते हैं। जिस आकाश-खण्ड में षड्द्रव्य न हों, सिर्फ आकाश हो, वह अलोक है।" इस लोक की रचना किसी ने नहीं की है, बल्कि यह अनादिकाल से चला आ रहा है। इस विषय की पुष्टि करते हुए पण्डित दौलतरामजी कहते हैं- "इन छ: द्रव्यों के
603 पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा १४४. 664 मरणविभक्ति गाथा ६२८. 665 भगवतीआराधना १८४०. 666 संवेगरंगशाला, गाथा ८७७-८७७६.
'उत्तराध्ययनसूत्र २८/७.
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