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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 223
करता है। जीवदया के बिना संयमग्रहण, देवपूजा, ध्यान, तप, विनय, आदि सर्व अनुष्ठान भी निरर्थक होते हैं। 49
साथ ही कहा गया है, गोहत्या, ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या की निवृत्ति से यदि परमधर्म होता है, तो सर्वजीवों की रक्षा करने से उससे भी उत्कृष्ट धर्म कैसे नहीं होगा ? संसारचक्र में अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए जीव ने सर्व जीवों के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध किए हैं, अतः जीव-हिंसा करनेवाला हिंसक व्यक्ति अपने ही स्वजन एवं सम्बन्धियों की हिंसा करता है। जो एक जीव की हिंसा करता है, वह करोड़ों जन्म तक अनेक बार अनेक प्रकार से मरण को प्राप्त होता है। जीव की हिंसा करनेवाला सर्वप्रथम स्वयं का वध करता है, फिर दूसरों का, इसलिए वध, बन्धन से बचने के लिए आत्मार्थी जीव को सर्वथा हिंसा का त्याग करना चाहिए। 500
प्रस्तुत कृति में ग्रन्थकार कहते हैं- सर्व प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखें, जैसा कि अपनी आत्मा के प्रति रखते हो। कहा है कि जैसे स्वयं को छोटा-सा कांटा भी लगता है, तो तीव्र वेदना होती है, वैसे ही अन्य जीवों पर भी शस्त्र, आदि से प्रहार करने से उन्हें भयंकर वेदना होती है। 501 जो कार्य स्वयं के लिए अनिष्टकारी है, वह कार्य दूसरों के लिए भी करने योग्य नहीं है। जो जैसा कर्म करता है, वह मृत्यु के बाद वैसा ही फल प्राप्त करता है। जगत् के सभी जीवों को अपने प्राण सर्वाधिक प्रिय होते हैं, इसलिए सभी जीवों के प्रति करुणा, वात्सल्य एवं दया भाव रखना चाहिए ।
साथ ही कहा गया है, जो व्यक्ति जीव की हिंसा करता है, वह पाप के भार से भारी होकर नरक में गिरता है एवं जो जीवों पर दया, करुणा करता है, वह देवलोक के सुख को प्राप्त करता है । दया - गुण के प्रभाव से जीव जगत् के जीवों को सुख देनेवाला होता है, इससे वह दीर्घ आयुष्य, निरोगी काया, सुरूप, सौभाग्य, विपुल सम्पत्ति, अतुलबल आदि गुणों को प्राप्त करता है । इस प्रकार पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध करता है तथा जैन-धर्म को प्राप्त कर, विधिपूर्वक समाधिमरण की आराधना द्वारा जीवदया के पारमार्थिक- फल को प्राप्त करता है। इस ग्रन्थ में हिंसा, अहिंसा के सन्दर्भ में सास, बहू और पुत्री का दृष्टान्त उपलब्ध है 1 502
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संवेगरंगशाला, गाथा ५५८१-५५८६. संवेगरंगशाला, गाथा ५५६०-५५६५.
संवेगरंगशाला, गाथा ५५६६.
संवेगरंगशाला, गाथा ५६०५-५६२५.
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