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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 271
भगवती आराधना के अनुसार भी यह संसार - समुद्र अनन्त और अथाह दुःखरूपी जल से भरा पड़ा है। 17 इस संसार में दुःखों का साम्राज्य है, जहाँ जीव अनन्तकाल से परिभ्रमण करता आ रहा है तथा अन्य जीवों के साथ माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी, आदि विविध सम्बन्धों को जोड़कर दुःखी होता रहा है। 018
समाधिमरण की दृष्टि से देखा जाए, तो साधना के क्षेत्र में संसार - भावना की उपयोगिता यही है कि इसके चिन्तन के द्वारा व्यक्ति संसारजनित तृष्णा को त्यागकर भव- परिभ्रमण से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
४. एकत्व - भावना :- संवेगरंगशाला में एकत्व - भावना के स्वरूप के सम्बन्ध में यह प्रतिपादित किया गया है कि जीव अकेला जन्म लेता है, वह अकेला कर्मों को बाँधता है, अकेला ही भोगता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त करता है। यह जीव अकेला ही परलोक को जाता है और वहाँ अपने शुभाशुभ कर्मों का उपभोग भी अकेला ही करता है । मृत्यु के आगमन पर सम्पूर्ण सांसारिक - वैभव तथा परिवार का परित्याग करके शोक करते स्वजनों के मध्य से वह अकेला ही प्रयाण करता है। उस समय पिता, पुत्र, स्त्री, मित्रादि कोई भी उसके साथ नहीं जाते हैं। 619
संवेगरंगशाला में आगे यह भी निरूपण किया गया है कि कौन, किसके साथ जन्मा है ? कौन, किसके साथ परभव में गया है ? कौन, किसका क्या हित करता है? और कौन, किसका क्या बिगाड़ता है? कहने का तात्पर्य यही है कि कोई भी व्यक्ति किसी का साथ नहीं देता है। सभी जीव अकेले ही सुख-दुःख को सहन करते हैं, अतः जीव को यह विचार करना चाहिए कि न कोई मेरा है और न मैं किसी का हूँ। फिर भी अज्ञानी जीव, जो परभव चले गए उन मनुष्यों के लिए शोक करता है, किन्तु संसार में स्वयं अकेला दुःखों को भोग रहा है - इसकी चिन्ता नहीं करता है। जब जीव नरक में अकेला दुःख सहन करता है, तब वहाँ कोई नौकर या स्वजन नहीं होते हैं और जब स्वर्ग में अकेला सुख भोगता है, तब भी स्वजनादि उसके साथ नहीं होते हैं। इस तरह समस्त स्वजनों एवं पदार्थों को छोड़कर इहलोक से परलोक में जीव अकेला ही जाता है। अन्त में कहा गया है कि जीव संसाररूपी कीचड़ में फंसा हुआ अकेला ही दुःखी होता है, उस समय
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भगवती आराधना, १७६४. ज्ञानापर्व - संसारभावना.
संवेगरंगशाला, गाथा ८६५२-८६५५.
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