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सामायिक-व्रत में सचित्तादि का स्पर्श करना, मन-वचन-काया के दुष्प्रणिधान आदि से छेदन - भेदन करना, चरवले की दण्डी से कौतूहल - वृत्ति करना, अनुकूलता होने पर भी सामायिक नहीं करना, इत्यादि दोष लगने पर; देशावगासिक - व्रत में योग-संवर नहीं करने से, असावधानी से कपड़े, आदि धोने इत्यादि से, पौषव्रत में संस्तारक स्थण्डिलभूमि आदि का प्रतिलेखन नहीं किया हो, अथवा अविधि से किया हो, इत्यादि तथा अतिथिसंविभाग- व्रत में साधु-साध्वी आदि को अशुद्ध आहार- पानी दिया हो एवं शुध्द कल्प्य - आहारादि होते हुए भी नहीं दिया हो आदि, इन सभी अतिचारों की आलोचना श्रावक को स्वीकार करना चाहिए। 553
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 243
इस तरह संवेगरंगशाला में बारह अणुव्रतों की आलोचना के पश्चात् तप, वीर्य एवं दर्शन सम्बन्धी आलोचना का वर्णन किया गया है। उत्तम श्रावक को इन सभी अतिचारों की सम्यक् आलोचना करने के पश्चात् जैन आगमों के विरुद्ध जो कुछ भी कार्य किया हो या करने योग्य कार्य न किए हों, अथवा करते हुए भी उन्हें सम्यक् प्रकार से नहीं किया हो तथा जिनवचन में श्रद्धा नहीं की हो - इन सबकी सम्यक् रूप से आलोचना करना चाहिए।
संवेगरंगशाला में श्रावक की आलोचना के पश्चात् मुनि की आलोचना का उल्लेख है। उसमें अनेक स्थानों पर अष्टप्रवचनमाता, अर्थात् पाँच समिति एवं तीन गुप्ति का उल्लेख मिलता है, साथ ही आलोचना- विधानद्वार में मुनि को किन-किन अतिचारों की आलोचना करना चाहिए? इसका स्पष्ट उल्लेख है । उसमें कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - इन पाँच प्रकार के आचारों में जो भी विरुद्ध प्रवृत्ति के हों, तो उन अतिचारों की मुनि आलोचना करे। ज्ञान एवं दर्शन के अतिचारों का उल्लेख करने के पश्चात् चारित्राचार में पाँच महाव्रतों एवं छठवें रात्रिभोजन त्याग के अर्न्तगत जिन अतिचारों का सेवन किया हो, उन सभी की गुरु के समक्ष आलोचना करना चाहिए, साथ ही इसके अतिरिक्त बारह प्रतिमाओं, बारह भावनाओं, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, पात्र, उपधि अथवा बैठते-उठते आदि अन्य किसी क्रिया में जिस किसी अतिचार का सेवन किया हो, उसकी आलोचना मुनि को करना चाहिए। 554
इसी प्रकार ईर्यासमिति में सावधानी बिना चलने-फिरने से, भाषा समिति में सावध या अवधारणी भाषा बोलने से, एषणा - समिति में अशुद्ध आहार- पानी
553 संवेगरंगशाला, गाथा ३०२७-३०४६.
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संवेगरंगशाला, गाथा ५०४५-५०६२.
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