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256 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री जाता है और तप किया जाता है तथा उसके बाद पुनः नई दीक्षा दी जाती है, वह अनवस्थाप्याह-प्रायश्चित्त कहलाता है।
६. पारांचिकाह :- जिस महादोष की विशुद्धि हेतु साधक श्रमण-वेश का और क्षेत्र का भी परित्याग कर छ: महीने से लेकर बारह वर्ष तक गण, साधुवेश और अपने क्षेत्र को छोड़कर जिनकल्पिक, श्रमण की तरह उग्र तपस्या करता है, उस अवधि के पूर्ण होने पर नई दीक्षा लेकर श्रमण-संघ में सम्मिलित होता है, वह पारांचिकार्ह-प्रायश्चित्त कहलाता है।569
यह प्रायश्चित्त उन साधकों को आता है, जो गण (समुदाय) में फूट डालते हैं, फूट की योजना बनाते हैं, श्रमण को मारने के भाव रखते हैं, मारने की योजना बनाते हैं एवं उस योजना को सफल बनाने के लिए समय, आदि का अन्वेषण करते हैं।
___टीकाकार का अभिमत है कि दसवाँ प्रायश्चित्त विशेष सामर्थ्यवान् आचार्य को दिया जाता है। उपाध्याय के लिए नौवें प्रायश्चित्त तक का विधान है एवं अन्य सामान्य श्रमणों के लिए आठवें प्रायश्चित्त तक का ही विधान है।
प्रायश्चित्त के जो उपर्युक्त प्रकार बताए गए हैं, उनसे यह फलित होता है कि प्रायश्चित्त वही साधक ग्रहण करता है, जिसका हृदय सरल हो और जिसमें दोषमुक्त होने की भावना हो। दोष चाहे कितना ही बड़ा या छोटा हो, अप्रमत्त-भाव से पापों की शुद्धि (प्रायश्चित्त) करनेवालों को दोष से मुक्त बनाया जा सकता है, क्योंकि मूलतः आत्मा दोषी नहीं है। दोष, प्रमाद व कषाय के कारण होता है, इसलिए दोष से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित्त की आवश्यकता रहती है।
६. आलोचना का फल :- राग-द्वेष से रहित सर्वज्ञ परमात्मा ने सर्व दुःखों का क्षय होने से शाश्वत सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति को ही आलोचना का फल कहा है, क्योंकि सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्षमार्ग का हेतु कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में भी मोक्षमार्ग के यही हेतु बताए गए हैं।570
“सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणिमोक्षमार्गः" चारित्र के साथ सम्यक् ज्ञान और दर्शन-दोनों अवश्य होते हैं, किन्तु चारित्र-व्रत स्वीकार करके भी प्रमादवश साधक महाव्रतों एवं मुनि-आचार में दोष लगाते हुए अपने लाखों भवों के चारित्र का नाश कर लेता है। अतः साधक उन
569 संवेगरंगशाला, गाथा ५०८५-५०६१. 570 तत्त्वार्थसूत्र १/१.
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