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266 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
में प्रवाहित होता है, तब वह भावना के रूप में परिणत हो जाता है। भावना में अखण्ड प्रवाह होता है, जिससे मन में संस्कार स्थाई हो जाते हैं। भाव पूर्वरूप है, तो भावना उत्तररूप, अतः हम कह सकते है कि भाव बीजरूप है, जबकि भावना उससे विकसित वृक्ष। भावना मनुष्य के विचारों को परिष्कृत करने की प्रणाली है, जो सुस्थिर संस्कारों का निर्माण करती है। समाधिमरण की साधना में भावना एक अंग का एक पक्ष है, जिसके द्वारा आत्मा में गहरे जमे हुए विकृत संस्कारों का शोधन कर उन्हें परिष्कृत किया जाता है, ताकि मनुष्य अपने ममत्व-भाव को अल्प कर सके। आगे हम भावनाओं के स्वरूप पर विचार करेंगे।
१. अनित्य - भावना :- संवेगरंगशाला में संसार की वस्तुओं की अनित्यता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि संसार के सभी पदार्थों की अस्थिरता एवं क्षणभंगुरता का वैराग्यपरक चिन्तन ही अनित्य - भावना है । पुनः, सभी पदार्थों की अस्थिरता का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यौवन बिजली के समान अस्थिर है और रूप, बल, आरोग्य- ये सभी भी अस्थिर हैं। सुख-सम्पदाएँ सन्ध्या के बादल के समान शीघ्र विलुप्त होनेवाली हैं। जीवन पानी के बुलबुले के समान शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है। इसी तरह भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष और वैमानिक देवों के शरीर, रूप, आदि भी स्थाई नहीं हैं। इस लोक और परलोक की जो भी संयोगिक उपलब्धियाँ हैं, वे सभी भी क्षणिक हैं। माता, पिता, पत्नी, पुत्र, मित्र एवं स्वजनों के साथ जो संयोग है, उसका वियोग निश्चित है। मकान, दुकान, बाग-बगीचे, यान और वाहन एक दिन यहीं छूट जाएंगे। इस तरह सर्वगत अनित्यता को जानकर जो उत्तम पुरुष धर्म में उद्यम रहता है, वहीं अपना कल्याण कर सकता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में नग्गति राजा का कथानक उपलब्ध होता है। 599
जगत् में सभी पदार्थ कालक्रम में परिवर्तित होते रहते हैं। संसार का जो स्वरूप प्रातःकाल था, वह मध्याहूनकाल में नहीं रहता है और जो मध्याहूनकाल में था, वह अपराहूनकाल में नहीं रहता है, इसलिए व्यक्ति को इस शरीर एवं संसार की वस्तुओं के प्रति होनेवाले ममत्व-भाव का त्याग करना चाहिए । आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में समग्र सांसारिक - वैभव, इन्द्रियाँ, रूप, यौवन, बल, आरोग्य, आदि सभी इन्द्रधनुष के समान क्षणिक हैं, संयोगजन्य हैं, इसलिए व्यक्ति को समग्र सांसारिक उपलब्धियों की अनित्यता एवं संयोगजन्यता को समझकर उनके
599 विज्जुव्व जोव्वणं संपन्या वि संझऽब्मरागरेहव्व । संवेगरंगशाला, गाथा ८५६४-६६.
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जलबुब्बुओ व्व जीवियं
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मऽच्चतम ऽणिच्चमेवऽ हो । ।
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