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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 263
अपने निरन्तर अभ्यास के द्वारा रणभूमि में घबराता नहीं है, वैसे ही सत्व-भावना से युक्त मुनि उपसगों से घबराते नहीं हैं।583
४. एकत्व-भावना :- इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार का कहना हैएकत्व-भावना में वैराग्य को प्राप्त करनेवाला जीव काम-भोगों में आसक्त नहीं होता है, अपितु श्रेष्ठ धर्म का पालन करता है। एकत्वभाव वाला जिनकल्पी मुनि विपत्तियों से घबराता नहीं है, क्योंकि वह जानता है- मेरी आत्मा के अतिरिक्त कोई भी मेरा-अपना नहीं है।584
५. धैर्यबल-भावना :- मुनि की धैर्यता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि परीषहों एवं उपसों की सेना चढ़कर आ भी जाए, तो धीर-वीर साधक अत्यन्त दृढ़तापूर्वक पीड़ा को समभाव से सहन करता है। वह अनाकुल नहीं बनता और अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र के गुणों में उत्कृष्टता से रमण करता है। इस सम्बन्ध में धैर्यवान् आर्य महागिरि का दृष्टान्त दिया गया है।585
भावना :- जैनधर्म में वैराग्योपादक एवं तत्त्वपरक चिन्तन को अनुप्रेक्षा या भावना कहा गया है, इसलिए समाधिमरण की साधना में व्यक्ति को अपना मन शुभचिन्तन में लगाना चाहिए। जैनदर्शन में भावना मन का वह भावनात्मक पहलू है, जो साधक को उसकी वस्तुस्थिति का बोध कराता है। "जैन-परम्परा में भावनाओं के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है- दान, शील, तप एवं भावना के भेद से धर्म चार प्रकार का है। प्रत्येक धर्म का अपना अलग-अलग महत्व है, लेकिन जहाँ तक प्रभाव की बात है, तो इन चतुर्विध धर्मों में भावना ही अधिक प्रभावशाली है। संसार में जितने भी सुकृत्य हैं, धर्म हैं, उनमें केवल भावना ही प्रधान है। भाव ही धर्म का साधक कहा गया है और तीर्थंकरों ने भी भाव को ही सम्यक्त्व का मूल मन्त्र बताया है।586
संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने भावना को समाधिमरण का आवश्यक अंग कहा है। जैसे- नमक के मिश्रण से भोजन रसयुक्त बनता है तथा पारे के रस के संयोग से लोहा स्वर्णमय बनता है, वैसे ही धर्म के जो दानादि चार अंग हैं, वे भी भावना के संयोग से वांछित फल प्रदान करनेवाले बनते हैं। संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने भावना से इच्छित फल को प्राप्त करनेवालों का दृष्टान्त देते हुए
583 संवेगरंगशाला, गाथा ३८६२-३८६५. 584 संवैगरंगशाला, गाथा ३८६६-३८६७. 585 संवेगरंगशाला, गाथा ३६०७-३६१२. 00 प्राकृतसूक्ति सरोज, भावनाधिकार, ३,१६.
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