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करता हैं। " मैं कितना पापभीरु हूं, लोग मेरी प्रशंसा करें" - इस भाव से भी अनेक आचार्यों के पास आलोचना करता है, उसे बहुजन नाम का आठवाँ दोष कहा गया है। जैसे- अन्दर शल्य रह जाने पर रोगी को भयंकर वेदना होती है, वैसे ही यह प्रायश्चित्त भी भयंकर दुःखदायी है ।
६.
अव्यक्त - दोष :- शिष्य ऐसे अगीतार्थ गुरु के पास आलोचना करता है, जिसे यह भी ज्ञात नहीं कि किस दोष का क्या प्रायश्चित्त आता है। जैसे - दुर्जन से की गई मैत्री अन्त में अहितकर होती है, वैसे ही इस तरह से लिया हुआ प्रायश्चित्त लाभदायक नहीं होता है।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 249
१०. तत्सेवी - दोष :- जिस दोष की आलोचना करनी है, उसी दोष का जिसने सेवन किया हो, उसके पास आलोचना करना, जिसमें गुरु एवं शिष्यदोनों का समान अपराध हो, उसे तत्सेवी - दोष कहते हैं। इस दोष में, गुरु मुझे अधिक प्रायश्चित्त नहीं देगा- ऐसा विचार कर वह आलोचना करता है। जो मूढात्मा रक्त से सने कपड़े को रक्त से साफ करता है, वह उस वस्त्र को शुद्ध नहीं कर पाता है, उसी तरह इस आलोचना के दोष को जानना चाहिए | 564
आलोचक को आलोचना के इन दसों दोषों से बचना चाहिए । जब स्वयं को शुद्ध करने का निश्चय कर लिया है, तब आचार्य भगवन् कितना प्रायश्चित्त देंगे, आदि के विकल्प को छोड़कर जो भी प्रायश्चित्त मिले, उसे स्वीकार करना चाहिए।
४. आलोचना नहीं करने से होनेवाले दोष :- लज्जा, गारव अथवा बहुश्रुतज्ञान, आदि के अभिमान से जो अपना दुश्चरित्र (दोष) गुरु के सम्मुख प्रकट नहीं करता है, वह निश्चय से आराधक नहीं होता है, अतः किंचित् भी भूल हो जाए, तो साधक को गुरु के पास आकर बिना लज्जा उन दोषों को कहना चाहिए। लज्जा हमेशा अकार्य करने में होना चाहिए। इस विषय में एक युवराज का उदाहरण कहा गया है। एक युवराज प्रतिदिन मैथुन का सेवन करता था, जिससे उसे रोग उत्पन्न हुआ, किन्तु लज्जावश वह अपना रोग वैद्य के समक्ष प्रकट नहीं करता था। इससे उसका रोग और बढ़ने लगा, जिससे वह भोग से वंचित हुआ एवं अन्त में तीव्र वेदना से मृत्यु को प्राप्त हुआ ।
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संवेगरंगशाला, गाथा ४६३०-४६६६.
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