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हाथी, ऊँट, आदि के शरीर में प्रवेशकर अपने शरीर को गिद्धों आदि का भक्ष्य बनाकर मरनेवाले जीवों के मरण को गृद्धपृष्ठमरण कहा गया है। 385
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 183
भगवती आराधना में उपसर्गादि तथा संकटापन्न अवस्था में धर्म की रक्षा हेतु शस्त्र की सहायता से जो मरण प्राप्त किया जाता है, उसे गृद्धपृष्ठमरण कहा
गया है । 386
संवेगरंगशाला में मरण की चर्चा करते हुए यह कहा गया है वैहायस एवं गृद्धपृष्ठ- इन दोनों मरण की अनुज्ञा किसी विशेष परिस्थिति में ही दी गई है, क्योंकि विशेष परिस्थिति में संयम - रक्षा हेतु ज्ञानी मुनि का अविधि से किया गया मरण भी शुद्ध माना जाता है। जयसुन्दर और सोमदत्त नामक दो श्रेष्ठ मुनियों ने परिस्थितिवश इन दोनों मरणों को स्वीकार किया था - ऐसा संवेगरंगशाला में वर्णन मिलता है।
१५. भक्तपरिज्ञामरण :- संवेगरंगशाला में भक्तपरिज्ञामरण पर प्रकाश डालते हुए यह निरूपित किया गया है कि जीव ने इस संसार में अनादिकाल से आहार ग्रहण किया है, फिर भी इस जीव को आहार से तृप्ति नहीं हुई। इस जीव की उसके प्रति इतनी रुचि है, जैसे- पहले कभी उसका नाम सुना नहीं हो, अथवा उसे देखा नहीं हो, अथवा कभी खाया नहीं हो, अथवा उसे प्रथम बार ही मिला हो। इस प्रकार वह आहार के प्रति लालायित बना रहता है, 387 किन्तु जिस आहार के प्रति यह जीव आसक्त बना है, वह अशुचित्व, आदि अनेक प्रकार के विकारों को उत्पन्न करने वाला है। उसकी आसक्ति पापबन्ध का कारण है, अतः ऐसे आहार को ग्रहण करने से अब मुझे क्या लाभ है? इस तरह विचार कर वह ज्ञानी भगवन्तों के वचनानुसार विषय-भोगों के हेय स्वरूप को जानकर उनका प्रत्याख्यान करता है। प्रत्याख्यान में साधक चारों प्रकार के सभी आहार- पानी, बाहूय - उपधि (वस्त्र - पात्रादि), और आभ्यान्तर - उपधि ( रागादि ) - इन सर्व का यावज्जीवन के लिए त्याग करता है । 388
इस प्रकार जो जीव तीन प्रकार के आहार का, अथवा चारों प्रकार के आहार का यावज्जीवन प्रत्याख्यान करता है, उसे भक्तपरिज्ञा कहते हैं । उसको स्वीकार करके मरण को प्राप्त करना, भक्तपरिज्ञामरण कहा जाता है । भक्तपरिज्ञा
385 समवायांगसूत्र, पृ. ५४. (हिन्दी टीका ) 386 भगवती आराधना, पृ. ६०. (विजयोदया टीका) 387 संवेगरंगशाला, गाथा ३५४५ - ३५४६.
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संवेगरंगशाला, गाथा ३५४७-३५४६
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