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186 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री उपभेद किए हैं। इन प्रतिद्वारों का उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं, विस्तार के भय से यहाँ पुनः उनकी चर्चा आवश्यक नही है।''406
भगवतीआराधना में सविचारभक्तपरिज्ञा अथवा भक्तप्रत्याख्यान का विवेचन चालीस अधिकार सूत्रपदों की सहायता से किया गया है; 407 अतः तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि जहाँ संवेगरंगशाला में चार मूलद्वारों का विवेचन किया गया है, वहीं भगवतीआराधना में चार मूल द्वारों का उल्लेख नहीं मिलता है। संवेगरंगशाला में कुल तेंतालीस प्रतिद्वारों का उल्लेख है, जबकि भगवतीआराधना में चालीस अधिकारसूत्र उपलब्ध हैं। उसमें मनोनुसास्तिद्वार, राजद्वार, मरणविभक्तिद्वार, अधिगत (पण्डित) मरणद्वार, दर्शनद्वार, प्रतिपत्तिद्वार और सारणाद्वार- इन सात द्वारों के नाम नहीं पाए जाते हैं। साथ ही कुछ भिन्न नामों के अधिकार भी पाए जाते हैं, जैसे - मार्गणा, प्रतिक्षण, गुणदोष-प्रकाशन। संवेगरंगशाला में इन नामों के द्वार नहीं हैं।
भगवतीआराधना एवं आराधनापताका में अविचारभक्तपरिज्ञामरण का विवचेन भी संवेगरंगशाला के समान ही मिलता है। आराधनापताका एवं भगवतीआराधना में इसके उपर्युक्त तीन भेद करके उनका विवरण प्रस्तुत किया गया है, किन्तु भक्तपरिज्ञा-प्रकीर्णक में इन तीन भेदों का उल्लेख नहीं है। मात्र सामान्यतया अविचारमरण का विवेचन किया गया है।
१६. इंगिनीमरण :- संवेगरंगशाला में इंगिनीमरण का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि क्षपक गमनागमन हेतु क्षेत्र की सीमा निर्धारित करके, उस क्षेत्र में चेष्टा करते हुए अनशन द्वारा देहत्याग करना ही इंगिनीमरण है। यह मरण चारों प्रकार के आहार का त्याग करनेवाले, शरीर की सेवा-शुश्रूषा नहीं करनेवाले और एक विशेष क्षेत्र में रहकर देहत्याग करने वाले को ही प्राप्त होता है। 408
__ ग्रन्थ में इंगिनीमरण को ग्रहण करनेवाले एक प्रज्ञावान् मुनि को अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों को किस तरह सहन करना चाहिए, इसका वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम मुनि अपने गच्छ से क्षमायाचना करे, फिर प्रासुक स्थान पर तृण बिछाकर पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठे और अरिहन्त की साक्षी से
आलोचना करे, उसके पश्चात् चारों आहार का त्याग करके अंगों को संकुचित रखे। बड़ी नीत (मल) - लघुनीत (मूत्र) को स्वयं ही योग्य स्थान पर विसर्जित करे। देवता एवं किन्नरों के उपसर्ग उत्पन्न होने पर निर्भय होकर उन प्रतिकूल
० श्रीवीरभद्राचार्यकृत "आराधनापताका", पृ. ८५. 407
7 भगवतीआराधना, पृ. ६५. 408 संवेगरंगशाला, गाथा ३५६३-३५६४.
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