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202 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
उद्वेगरहित होकर क्षपक के मृतक शरीर को विसर्जित करने की विधि शीघ्र प्रारम्भ करना चाहिए।
( ब ) महापरिष्ठापना की विधि - जब क्षपक देह त्याग देता है, तब उसके देह को वैयावृत्य करने वाले मुनि स्वयं ही सावधानीपूर्वक विसर्जित करते हैं। ग्रन्थकार जिनचंद्रसूरि संवेगरंगशाला में महापरिष्ठापना की विधि का निरूपण करते हुए लिखते हैं कि वर्षा ऋतु के चार मासों में एक स्थान पर वास प्रारम्भ करते समय तथा ऋतु या मास के प्रारम्भ में सर्व साधुओं को निषीधिका की प्रतिलेखना करना चाहिए। विशेष रूप से गीतार्थ मुनि को महास्थण्डिल, अर्थात् मृतक शरीर के परित्याग के लिए निरवद्य - भूमि की खोज करनी चाहिए।
भगवती आराधना के अनुसार निषधिका का लक्षण इस प्रकार कहा गया है- निषधिका एकान्त स्थान में होना चाहिए, जहाँ दूसरे लोग उसे देख न सकते हों। वह नगर, आदि से न अति दूर हो और न अति निकट निषीधिका विस्तीर्ण होना चाहिए, प्रासुक तथा अतिदृढ़ होना चाहिए। वह चीटियों से रहित होना चाहिए, छिद्रों से रहित होना चाहिए, प्रकाशयुक्त होना चाहिए। भूमि समतल, जीव-जन्तुओं से रहित तथा शुष्क होना चाहिए। 46 1
संवेगरंगशाला में देह विसर्जित करने की दिशाओं का विचार करते हुए यह बताया गया है कि किस दिशा में देह - विसर्जन करने से क्या लाभ या हानि होती है। नैऋत्य, दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, वायव्य, पूर्व, उत्तर और ईशान - इस तरह इन आठ दिशाओं में प्रथम नैऋत्य दिशा उत्तम होती है। जैसे प्रथम, नैऋत्य-दिशा में देह विसर्जित करने से संघ को आहार-लाभ सुलभ होता है; दूसरी, दक्षिण दिशा में आहार- पानी की प्राप्ति दुर्लभता से होती है, पश्चिम - दिशा में वस्त्र, पात्र, आदि उपकरण की प्राप्ति नहीं होती है । आग्नेय दिशा में स्वाध्याय, आदि का अभाव होता है। वायव्य-दिशा में परस्पर कलह पैदा होता है, पूर्व-दिशा में संघ में मतभेद बढ़ता है, उत्तर- दिशा में व्याधि उत्पन्न होती है एवं ईशान - दिशा में मृतक का परित्याग करने से दूसरे मुनि की मृत्यु होती है, अतः योग्य दिशा का विचार करके ही देह का विसर्जन करना चाहिए। 462
संवेगरंगशाला में दक्षिण आदि दिशा के संदर्भ जो निरूपण किया गया है, वह भगवती आराधना से कुछ भिन्न प्रतीत होता है। उसके अनुसार निषीधिका पश्चिम-दक्षिण दिशा में हो, तो सर्व संघ को समाधिलाभ होता है। यदि
461 भगवती आराधना गाथा, १६६२ - १६६३.
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संवेगरंगशाला, गाथा ६८१२-६८१५.
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