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204 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री होती है, अतः तृणों (घास) से एक पुतला बनाना चाहिए तथा अर्द्धनक्षत्र, अर्थात् अल्पनक्षत्र में क्षपक का मरण होता है, तो सबका कल्याण होने से पुतला बनाने की आवश्यकता नहीं होती है। साथ ही, नक्षत्रों का नामोल्लेख करते हुए उनके काल-मान बताए हैं- उत्तरा-फाल्गुनी, उत्तरा-भाद्रपद, उत्तरा-आषाढ़ा, पुनर्वसु, रोहिणी एवं विशाखा- ये छः नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त तक रहते हैं, इन्हें उत्कृष्ट या डेढ़ भोगवाले नक्षत्र कहते हैं। शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा और ज्येष्ठा-ये छः जघन्य नक्षत्र कहलाते हैं, जो पन्द्रह मुहूर्त तक रहते हैं, इनमें पुतला बनाकर रखने की आवश्कता नहीं होती है। शेष सभी नक्षत्र मध्यम कोटि में गिने जाते हैं, जैसे-अश्विनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्व-फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, रेवती, घनिष्ठा और पूर्वभाद्रपद। इनमें से किसी एक नक्षत्र या उसके अंश में भी मरण होने पर एक अन्य मुनि की भी मृत्यु होती है, अतः एक पुतला बनाकर रखा जाता है।
इस तरह निर्यापकाचार्य को दिशाओं एवं नक्षत्रों को ध्यान में रखते हुए, उसी अनुसार मृतक के पास पूर्व में दी गई सूचनानुसार पुतले को स्थापित करके, उन्हें क्षपक के साथ बांध देना चाहिए, जिससे वह उठ न सके। मृत क्षपक का मस्तक गांव की ओर होना चाहिए। उस शिबिका को लेकर पहले देखे हुए मार्ग से शीघ्र जाते हैं। न मार्ग में सकते हैं और न पीछे की ओर देखते हैं। इस प्रकार विधि करने का मतलब यही है कि कहीं मृतक के शरीर में यक्षादि प्रवेश न कर जाए तथा नाचते हुए पुनः गांव में जाकर कौतूहल न कर दे, इसलिए विधि का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। मृत शरीर के विसर्जन-स्थल पर पहुँचने के पहले उसके आगे एक गीतार्थ मुनि को हाथ में कुश (तृण) तथा जल लेकर वहाँ जाना चाहिए, उसको भी न मार्ग में रुकना चाहिए तथा न ही पीछे देखना चाहिए। पहले से देखे हुए नीषिधिका के स्थान पर जाकर उन तृणों को समतल बिछाकर एक संस्तर बनाना चाहिए। उसके पश्चात् मृतक के शरीर को उस पर रख देना चाहिए। संस्तारक ऊपर, मध्य और नीचे सम होना चाहिए। यदि शय्या मृतक के मस्तक के भाग में विषम हो, तो आचार्य का मरण अथवा उन्हें रोग होता है। मध्य में अर्थात् कटि- प्रदेश में शय्या ऊँची-नीची हो, तो वृषभसाधु (वृद्ध साधु) मृत्यु को प्राप्त होता है, या उन्हें व्याधि होती है तथा नीचे पैर के पास विषम होने पर अन्य साधुओं का मरण या उन्हें रोग उत्पन्न होता है।405
संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने इसका भी संकेत किया है कि जहाँ पुतले बनाने हेतु तृण नहीं मिलते हों, तो वहां चूर्ण (चावलादि के चूर्ण) से तथा केसर
465 संवेगरंगशाला, गाथा ६८१६-९८२४.
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