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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 205
के पानी की अखण्ड धारा से स्थण्डिल भूमि में ऊपर मस्तक के भाग में 'क' एवं नीचे पैर के भाग में 'त' अक्षर लिखना चाहिए। 166 भगवती आराधना में जहाँ कुश नही मिलते हों, वहाँ चावलादि के चूर्ण से तथा प्रासुक केसर से संस्तर बनाने का उल्लेख मिलता है। इस गाथा में "लेहा" पाठ मिलता है, उसका अर्थ 'रेखा' होने से आशाधरजी ने उसका यह अर्थ किया है कि चूर्ण या केसर से मस्तक से पैर तक समान रेखा बनाना चाहिए। 467 भगवती आराधना में यह भी कहा गया है कि पुतला बनाने के लिए तृण, आदि उपलब्ध न हों, तो ईंट, आदि के चूर्ण से अथवा क्षार, आदि से ऊपर "क" कार लिखकर उसके नीचे "त" कार लिखें। संवेगरंगशाला एवं आराधनापताका में इस सन्दर्भ में समान गाथा उपलब्ध होती है। ज्ञातव्य है ब्राह्मी लिपि में "क" और "त" बनाने से मानव आकृति बन जाती है। आचार्य जिनचन्द्रसूरि लिखते हैं- यदि मृतक किसी समय उठकर भागे, तो उसे गांव की तरफ जाने से रोकना चाहिए। शव के उठने के भय से जिस दिशा में गांव हो, उस दिशा में उसका मस्तक रखा जाता है। मृतक उठकर पुनः वापस न आ जाए, इसलिए साधुओं के द्वारा मृतक की प्रदक्षिणा दी जाती है, साथ ही जिस दिशा में गांव हो, उसी ओर रजोहरण, चोलपट्टक, मुहपत्ति, आदि साधु के उपकरण मृतक के साथ रखना चाहिए, क्योंकि साधु के उपकरण नहीं रखने से दोष उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे- जो मुनि मृत्यु प्राप्त करके देवलोक में देव होता है, वह ज्ञान से अपने पूर्व शरीर (शव) को देखता है, तब मृत देह के पास मुनि-चिह्न के अभाव को देखकर वह स्वयं को मिथ्यात्वी मानकर मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। किसी व्यक्ति ने इसे मार डाला है, अथवा इसका वध कर दिया है - ऐसा मानकर राजा गांव के लोगों का वध, बन्धन, आदि कर सकता है। इसी तरह उपकरण स्थापित नहीं करने पर अन्य भी दोष उत्पन्न हो सकते हैं, इसका निरूपण आवश्यकनिर्युक्ति आदि अनेक ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। मृतक को विसर्जित करके जो साधु जहाँ खड़ा हो, वहाँ से सीधे चलकर अपने स्थान में जाए, किन्तु मृतक की प्रदक्षिणा देते हुए न जाए, इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए। वहाँ से कहीं ओर न जाकर उपाश्रय में आकर महापरिष्ठापना की विधि में कोई आशातना हुई हो, तो गुरु के पास आकर ही कायोत्सर्ग करना चाहिए, मृतक के पास खड़े रहकर कायोत्सर्ग नहीं करना चाहिए। 468
466 संवेगरंगशाला, गाथा ६८२५.
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जत्थ णं होज्ज तणाई चुण्णेहँ ति तत्थ केसरेहिंवा । । संधरिदव्वा लेहा सव्वत्थ समा अवुच्छिण्णा । । भगवती आराधना, गाथा १६७८
468 जत्य य नत्यि तणाई चुण्णेहि ति तत्थ केसरेहिंवा ।। कायाव्वोऽत्थ ककारो हेट्ठि तकारं च बधिज्जा । ।
आराधनापताका, गाथा ८७६
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