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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 195
अर्थात् आराधक के बैठने व लेटने का सीन- दोनों आराधना के अनुकूल होने चाहिए- ऐसा उल्लेख मिलता है। साथ ही भगवतीआराधना में कहा गया है कि गायनशाला, नृत्यशाला, गजशाला, कुम्भकारशाला, यंत्रशाला, धोबी, वाद्य बजानेवाला, डोम, नट, राजमार्ग के समीप का स्थान, पत्थरों का काम करनेवालों का स्थान, पुष्पवाटिका, मालाकार का स्थान, जलाशय के समीप का स्थान क्षपक के रहने योग्य नहीं है, क्योंकि इन स्थानों पर होनेवाले कार्यों तथा शोरगुल से ध्यान-साधना मे विघ्न उत्पन्न होता है।442 समाधिमरण हेतु मनोनुशासन की प्राथमिकता :
समाधिमरण के साधक के लिए मन पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है, अतः संवेगरंगशाला के छठवें मन अनुशास्तिद्वार में ग्रन्थकार दोषों को दूर करने एवं गुणों को धारण करने हेतु चित्त को सम्बोधित करते हुए कहते हैं- हे चित्त! विचित्र रंगोंवाले चित्रों की तरह तू भी विविध विकल्पों को धारण करता है, परन्तु इन विकल्पों में उलझकर तू स्वयं को ही ठगता है। इस संसार में जीवों को विभिन्न विकारों से ग्रसित एवं उनमें मदोन्मत्त बना देखकर तू ऐसा विचार कर कि मैं ऐसा आचरण करूँ, जिससे दूसरों की हँसी का पात्र नहीं बनें। क्या तू मोहरूपी सर्प से डंसे हुए इस मिथ्या जगत् को नहीं देखता? कि जिससे तू विवेकरूपी मन्त्र का विस्मरणकर विकल्पों (इच्छाओं) से विकल बना हुआ है।
हे हृदय! तू अपनी चंचलतावश एक पल में तल में प्रवेश करता है तथा दूसरे पल में आकाश में पहुँच जाता है और क्षणभर में सर्व दिशाओं में भी भ्रमण कर आता है। तेरी यह चंचलता ही तेरी अस्थिरता एवं अशांति का कारण है।
हे मन! जन्म, जरा, मरणरूपी अग्नि से संसाररूपी भवन चारों तरफ से जल रहा है। अतः तू ज्ञानरूपी समुद्र में स्नान करके स्वस्थता को प्राप्त कर।
____ हे मन! ये धन, वैभव, आदि सभी अस्थिर हैं, इनकी चिन्ता करने से क्या प्रयोजन? इसके प्रति तेरी तृष्णा अभी तक समाप्त नहीं हुई; अतः अब तो सम्तोषरूपी रसायन का पान कर ले।443
447 आराथनापताका, गाथा ३८६-३६६.
42 भगवतीआराधना, गाथा ६३२, ६३६. 443 संवेगरंगशाला, गाथा १७६७-१८०४.
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