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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 193
कालाइक्कतोवट्ठाण अभिकंत अणभिकंता या
वज्जा य महावज्जा सावज्ज महप्पकिरिया य ।।बृहत्कल्पभाष्या। जैसे : १. कालातिक्रान्ता २. उपस्थान ३. अभिक्रान्ता ४. अनभिक्रान्ता
५. वर्ध्या ६. महावा ७. सावद्या ८. महासावद्या ६. अल्पक्रिया।
संस्तारक- संवेगरंगशाला में आराधना के योग्य संस्तारक का वर्णन इस प्रकार किया गया है- जहाँ छःकाय जीवों की विराधना न हो, दुर्गन्ध न हो, पृथ्वी आदि में गड्ढे न हों, वहाँ क्षपकमुनि पृथ्वी या शिला अथवा काष्ठ या तृण (घास) का संथारा बनाता है और उस पर उत्तर अथवा पूर्व-दिशा की ओर मुख रखकर बैठता है। आगे संवेगरंगशाला में पृथ्वीशिला आदि योग्य संस्तर का कथन किया गया है। जो भूमि कठोर न हो, ऊँची-नीची न हो, छिद्रादि से रहित हो, सम हो, चींटी आदि जीवजन्तु से रहित हो, प्रकाशयुक्त एवं समतल हो; काष्ठ का संस्तर-विस्तीर्ण हो, हल्का हो, भूमि से जुड़ा हो, जड़ हो, एकरूप हो, चिकना हो, अचल हो, शब्द न करता हो, जन्तुरहित हो; तृण का संस्तर-गांठरहित हो, लम्बे तृण का हो, छिद्ररहित हो, मृदुस्पर्श वाला एवं कोमल हो- ये योग्य संस्तर के लक्षण हैं।
संस्तारक-भूमि में चींटी आदि का वास होने से जीवों की विराधना होती है, इसलिए भूमि जीव-जन्तु से रहित हो, संस्तर क्षपक के योग्य हो, प्रमाणयुक्त हो, न छोटा हो, न बड़ा हो, दोनों समय (सूर्योदय एवं सूर्यास्त) प्रतिलेखन द्वारा शुद्ध किया गया हो एवं शास्त्र-अनुमोदित नियमानुसार बनाया गया हो, ऐसे संस्तर पर क्षपक को तीनों गुप्ति से गुप्त होकर आरोहण करना चाहिए। इसमें यह भी कहा गया है कि यदि कठोर संस्तर या तीक्ष्ण तृण, आदि के कारण क्षपक को असमाधि होती हो; तो एक, दो अथवा अधिक कपड़े बिछाए । अपवादमार्ग में तलाई आदि का भी उपयोग ले सकते हैं।436
संवेगरंगशाला में दो प्रकार के संस्तर बताए गए हैं- द्रव्य-संस्तर एवं भाव-संस्तर। द्रव्य-संस्तर की अपेक्षा से अनेक प्रकार के संस्तर का उल्लेख किया है। अब भाव की अपेक्षा से विविध प्रकार के संस्तर का वर्णन करते हैं। जिस प्रकार राग-द्वेष, क्रोध-मोह, आदि का त्याग करके प्रशमभाव को प्राप्त करना ही आत्मा का भाव-संथारा है, वैसे ही सावध योग से रहित, संयमरूपी धनवाली, तीन
436 संवेगरंगशाला, गाथा ५२७१-५२८२.
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