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196/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
हे चित्त! नरक और स्वर्ग में, शत्रु और मित्र में, संसार और मोक्ष में, दुःख और सुख में, मिट्टी और स्वर्ण में, जब तेरी समदृष्टि होगी, तब तू कृतार्थ होगा।444
इसी द्वार में आगे जिनचन्द्रसूरि ने मन को सम्बोधित करते हुए कहा हैहे हृदय! तू हरपल अपने निकट आनेवाली मृत्यु का विचार कर जिसे कोई भी शक्ति रोकने में समर्थ नहीं है। शेष विकल्पों के जाल में उलझने से क्या प्रयोजन? अरे! तेरे ऊपर इस महामोह का कैसा प्रभाव पड़ा है कि तू जरा से जीर्ण होती तेरी इस शरीररूपी झोपड़ी का भी ख्याल नहीं करता है? हे मूढ़! लोक मे जरा-मरण, रोग-शोक, आदि दुःख प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, फिर भी तुझे वैराग्य प्राप्त नहीं हुआ, क्या तू अपने को अजरामर समझता है?445
___ संवेगरंगशाला के उपर्युक्त द्वार में व्यक्ति की तीन अवस्थाओं का चित्रण करते हुए कहा गया है- हे चित्त! बचपन में अविवेक के कारण, बुढ़ापे में इन्द्रियादि की विकलता के कारण धर्म-क्रिया के अभाव से तेरा नरभव निष्फल गया है। तेरा यौवन तो प्रायः सभी अनर्थों का कारण रहा है। तूने कभी धर्म की साधना नहीं की। यदि तू पर की चिन्ता में ही हमेशा व्याकुल बना रहेगा, तो तुझे शान्ति कैसे प्राप्त होगी? इसके लिए तू चित्त की निराकुलता को प्राप्त कर और निराकुलता से कार्य कर, क्योंकि जन्म-मरण की परम्परा का और इच्छाओं एवं तद्जन्य क्रिया-कलापों या प्रवृत्तियों का अन्त नहीं है, साथ ही यह भी कहा कि हे चित्त! यदि तू प्रतिदिन चिन्ताओं से ग्रसित रहेगा, तो तू अत्यन्त दुष्कर संसार समुद्र से पार नहीं हो सकेगा।446
ग्रन्थकार मति को निर्मल बनाने के लिए चित्त को सम्बोधित करते हुए आगे कहते हैं- दुःखों के समूहरूपी मेरु पर्वत की मथनी से तेरा मन्थन करने पर भी तुझ में विवकेरूपी रत्न प्रकट नहीं हुआ, अतः अविवेकरूपी कीचड़ से कलुषित तेरी मति तब तक निर्मल नहीं होगी, जब तक तू विवकेरूपी जल से अभिषेक नहीं करेगा।447
प्रस्तुत द्वार में मन को विषय-भोगों को त्यागने तथा वैराग्य में रमण करने के लिए यह कहा गया है- हे मन! शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श - ये पाँचों विषय स्व-इंद्रियों को क्षणिक सुख प्रदान करते हैं तथा क्षणिक सुख देकर,
444 संवेगरंगशाला, गाथा १८०६ 445 विंगरंगशाला, गाथा १८१०-१८१३.
संवेगरंगशाला, गाथा १८१५-१८२५. संवेगरंगशाला, गाथा १८४०-१८४२.
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