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182 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री उन जीवों के मरण को छ्यस्थमरण कहा गया है। 377 भगवतीआराधना में छमस्थ-मरण का विवरण नहीं मिलता है, जबकि इसमें ओसण्णमरण का उल्लेख मिलता है। इसमें संघ से बहिष्कृत संयमियों के मरण को ओसण्णमरण कहा गया है।378
१२. केवलीमरण :- संवेगरंगशाला में केवलीमरण का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो जीव केवलज्ञान प्राप्त करके मृत्यु को प्राप्त होता है, उसका मरण केवलीमरण कहलाता है। 79
समवायांगसूत्र के अनुसार केवलज्ञान को धारण करने वाले अयोगी-केवली के मरण को केवलीमरण कहा गया है।380
१३. वैहायसमरण :- जो गले में फांसी आदि लगाकर मरण को प्राप्त होता है, उस मरण को संवेगरंगशाला में वैहायस (वैखानस) मरण कहा गया है।381
समवायांगसूत्र के अनुसार गले में फांसी लगाकर, अर्थात् किसी वृक्षादि से लटककर मरने को वैहायसमरण कहा गया है। 382
भगवतीआराधना के अनुसार अपरिहार्य उपसर्ग की स्थिति में या न टलने वाला संकट, आदि के उपस्थित हो जाने पर जब जीव को यह ज्ञात हो जाए कि उपस्थित संकटापन्न स्थिति से बचना सम्भव नहीं है, अथवा उसके कारण धर्म के नष्ट होने की स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो धर्म की रक्षा के लिए व्यक्ति सांस रोककर जो मरण करता है, वह वैहायसमरण कहलाता है।383
१४. गृद्धपृष्ठमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार जो जीव गृद्धादि के भक्षण द्वारा मरण को प्राप्त होता है, तो उस मरण को गृद्धपृष्ठमरण कहा गया है। 384 समवायांगसूत्र में 'गिद्धपिट्ठ' पद के संस्कृत में दो रूप बनते हैं - गृद्धपृष्ठ
और गृद्धस्पृष्ट। इसमें गिद्ध, चील, आदि पक्षियों के द्वारा जिसका मांस नोंच-नोंच कर खाया जाता हो, तो ऐसे मरण को गृद्धास्पृष्टमरण कहा गया है एवं परे हुए
समवायांगसूत्र, पृ. ५४. भगवतीआराधना, पृ. ५६. संवेगरंगशाला, गाथा ३४५८. समवायांगसूत्र, पृ. ५४. संवेगरंगशाला, गाथा ३४५६ समवायांगसूत्र, पृ. ५४.
भगवतीआराधना, पृ. ६० 384 संवेगरंगशाला, गाथा ३४५६.
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