________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 107
करके आगम-ग्रन्थों के आधार पर बन्धन से मुक्त होने का रास्ता बतलाया है। उनका एक ही उद्देश्य रहा है कि व्यक्ति जीवन एवं जगत् के स्वरूप को समझे, बन्ध और मुक्ति के कारणों एवं उपायों का परिज्ञान करे और तदनन्तर साधना के द्वारा अपने साध्य, अर्थात् जन्ममरण के चक्र से मुक्ति को प्राप्त करे। इसी दृष्टिकोण के आधार पर जैन-मनीषियों ने मुक्ति का मार्ग बताते हुए महाव्रतों की साधना को मोक्ष प्राप्ति का साधन कहा है। जैन-परम्परा मूलतः श्रमण-परम्परा है, इसलिए उसमें श्रमण-जीवन की प्रधानता प्रमुख है। श्रमण-जीवन का तात्पर्य पाप-विरति है। श्रमण-जीवन में व्यक्ति को हिंसादि पाप-प्रवृत्तियों से बचते हुए उनकी कारणभूत रागद्वेषात्मक आन्तरिक-वृत्तियों से ऊपर उठना होता है।
उत्तराध्ययन में श्रमण-साधना का मुख्य लक्ष्य समत्वभाव की साधना ही माना गया है। भगवान महावीर ने कहा है कि केवल मुंडित होने से ही कोई श्रमण नहीं होता है, वरन् जो समत्व की साधना करता है, वही श्रमण होता
संवेगरंगशाला 142 में सामान्य रूप से व्रतों का निर्देश करते हुए श्रमण-जीवन की स्पष्ट व्याख्या की गई है। जो साधक शरीर के प्रति ममत्व-भाव नहीं रखता, सांसारिकवस्तुओं की इच्छा नहीं करता, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, मैथुन और परिग्रह के विकार से रहित है; क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, आदि जितने भी कर्मादान के कारण और आत्मा के पतन के हेतु हैं, उन सबसे निवृत्त रहता है, जो इन्द्रियों का विजेता है, मोक्ष-मार्ग का सफल यात्री है, वही श्रमण कहलाता है। यही बात प्रकारान्तर से सूत्रकृतांग में भी कही गई है। 43 श्रमणधर्म का आधार : पंच महाव्रत :
__ पंच महाव्रत श्रमण-जीवन के मूलभूत गुणों में माने गए हैं। संवेगरंगशाला में श्रमण के पंच महाव्रतों का उल्लेख चतुर्थद्वार के प्रथम अनुशास्ति नामक प्रतिद्वार के दसवें पंच-महाव्रत-रक्षण उपद्वार में किया गया है। वे ये हैं - १. अहिंसाव्रत २. असत्य-त्यागवत ३. अदत्तादानत्यागवत ४. ब्रह्मचर्यव्रत और ५. अपरिग्रहव्रत। ये पाँचों व्रत श्रावक एवं श्रमण- दोनों के लिए विहित हैं, अन्तर यह है कि साधु अहिंसादि व्रतों का पूर्ण रूप से पालन करता है, किन्तु
उत्तराध्ययन, २५/३२/ 142 संवेगरंगशाला, गाथा ७८८८
सूत्रकृतांग १/१६/२-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org