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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 125
७. सत्य :
सावद्य, अप्रिय एवं अहितकारी मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग करना, सत्य व्यवहार करना, सत्य-धर्म हैं। सत्यधर्म का पालन करने वालों को ही सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है, इसलिए साधु को प्राण देकर भी सत्य की सुरक्षा करना चाहिए। न्याय-नीतिपूर्वक या ईमानदारीपूर्वक जीवन यापन करना ही सत्य धर्म है। जैनधर्म में सत्य धर्म का सर्वाधिक महत्व होने से इसके चार रूा उपलब्ध होते हैं- १. सत्यमहाव्रत २. भाषासमिति ३. वचनगुप्ति एवं ४. सत्यधर्म। साधु को सदैव सत्य वचन बोलना चाहिए। इससे सत्य धर्म का पालन होता है एवं सत्य महाव्रत भी खण्डित नहीं होता है। ८. शौच :
विषय-वासनाओं या कषायों की गंदगी हमारे चित्त को कलुषित करती है, अतः उसकी शुद्धि ही शौचधर्म है। जैनधर्म में पवित्रता को शौच कहा जाता है। पवित्रता दो प्रकार से होती है- शारीरिक-पवित्रता और मानसिक-पवित्रता। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शौचधर्म, यानी शारीरिक-पवित्रता, अर्थात् स्नान, दन्त-प्रक्षालन, आदि एवं मानसिक-पवित्रता, अर्थात् विषय-कषाय, आदि की शुद्धि को ही कहा गया है। उत्तराध्ययन में कलुषित मनोभावों को दूर करने के लिए धर्मरूपी सरोवर में स्नान करने से जीव विमल एवं विशुद्ध बन जाता है, ऐसा उल्लेख है। ६. अकिंचनता :
अकिंचनता का दूसरा नाम लाघव भी है। अकिंचनता का अर्थ है- द्रव्य से अल्प उपकरण रखना एवं भाव से तीन प्रकार के गारव का परित्याग करना। गारव, यानी मान एवं लोभसहित अशुभ भावना। तत्त्वार्थभाष्य 203 के अनुसार शरीर तथा धर्मोपकरण आदि में ममत्वभाव का सर्वथा अभाव अकिंचनता धर्म है। इसमें व्यक्ति एकत्वभावना का चिन्तन करता है, इससे लोभ की प्रवृत्ति घटती है और निर्लोभता तथा अपरिग्रहवृत्ति जाग्रत होती है। जिस प्रकार कपिल ब्राह्मण ने लोभ का त्याग करके केवलज्ञान को प्राप्त कर अन्त में मोक्षसुख को प्राप्त किया, उसी प्रकार मुनि भी अकिंचनता का पालन कर मोक्ष को प्राप्त करे।
201 जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ. ४१४. 202 उत्तराध्ययनसूत्र - १२/४६ 203 तत्वार्थसूत्र भाष्य, पृष्ठ - २१३.
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