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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 147
भारतीय-मनीषियों ने जीवन जीने की कला के साथ-साथ मृत्यु की कला पर भी चिन्तन-मनन किया है। उन्होंने हँसते हुए शरीर को छोड़ने की कला भी बताई है। जैनधर्म में मोक्ष-प्राप्ति के लिए नवीन कर्मबन्ध को रोकने के साथ-साथ पूर्वसंचित कर्मों को क्षय करना होता है। कर्मों का क्षय संवर और निर्जरा के द्वारा होता है। संयम और तप जैनसाधना के महत्वपूर्ण अंग हैं, क्योंकि संयम नवीन कों के बन्ध से बचाता है, तो तप पूर्वसंचित कों की निर्जरा करता है। निर्ग्रन्थों की कठोर तप-साधना प्रसिद्ध है। तप पर विस्तार से विवेचन आगे किया है। जैनधर्म में तप के बारह भेदा में से प्रथम तप अनशन है। वह समाधिमरण का एक आवश्यक अंग है, क्योंकि देहासक्ति से ऊपर उठने के लिए देह-पोषण के प्रयत्नों को छोड़ना होता है; उसमें आहार-त्याग आवश्यक है, क्योंकि वह देह-पोषण का मुख्य साधन है। समाधिमरण में अनशन के अतिरिक्त ध्यान, आदि की भी साधना की जाती है, क्योंकि वे मानसिक-उद्विग्नता को समाप्त करते हैं।
समाधिमरण की साधना न केवल शरीर-व्युत्सर्ग की साधना है, अपितु यह कषाय-व्युत्सर्ग, अर्थात् कषाय-त्याग की साधना भी है। यह चेतना के अन्तर्मुखीकरण की प्रक्रिया है, जो व्यक्ति में समत्व का भाव जगाती है। जैन-परम्परा में समाधिमरण की साधना को देह के प्रति रहे हुए ममत्व के त्याग का और आत्मानुभूति का हेतु माना गया है। इसमें व्यक्ति जीवन और मृत्यु-दोनों ही परिस्थितियों में 'सम' बना रहता है। उसे न जीवन की आकांक्षा होती है और न मरण की चाह; इस कारण ही इसे समाधिमरण कहा गया है। इसे मृत्यु-कला के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि इसमें निष्कामभाव से और अनुद्विग्नतापूर्वक मृत्यु का वरण किया जाता है। साररूप में कहें, तो मृत्यु की अनिवार्यता को जानकर जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही मृत्यु को अनुद्विग्नतापूर्वक स्वीकार करना ही समाधिमरण है। आगमों में समाधिमरण की अवधारणा :
जैन-परम्परा के सामान्य आचार-नियमों में समाधिमरण एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। अन्तकृतदशांग254, अनुत्तरोपपातिक255 तथा उपासकदशांग,256 आदि अनेक आगमों में श्रमण-साधकों एवं गृहस्थ-उपासकों के द्वारा समाधिमरण की साधना करने के उल्लेख मिलते हैं। आचारांग257, समवायांग258, आदि प्राचीन
254 अन्तकृतदर्शाग ८/१/४, २ 255 अनुत्तरोपपातिक ३/१, 256 उपासकदशांग १/७३,
आचारांगसूत्र १/८/६,७,८.
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