________________
170 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
___अन्त में, यह कहा गया है कि यदि पुरुष को अपना मस्तक नहीं दिखाई दे, तो दो प्रहर के पश्चात् एवं स्वयं की अपनी छाया सर्वथा दिखाई न दे, तो उसका तत्काल मरण हो जाता है। मरण के दो भेद :
संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक-दशा का सूचक है। संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सजगता एवं समभावपूर्वक जीना है। वह मृत्यु का मित्र की तरह स्वागत करता है- मित्र! आओं, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। संलेखना को एक दृष्टि से मृत्यु महोत्सव भी कहा जा सकता है। जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है, तब साधक को शरीर और जागतिक्-विषयों में बन्धन की अनुभूति होती है। वह देहादि को बन्धन समझकर उससे मुक्त होना चाहता है।
मृत्यु से भयभीत न होकर उसका स्वागत करना चाहिए। वह अनुद्विग्नतापूर्वक मरने की कला है। इस कला के सम्बन्ध में जैन-मनीषियों ने विस्तार से विश्लेषण किया है। जैनधर्म में गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण-साधकोंदोनों के लिए समभावपूर्वक मृत्यु-वरण का विधान है।
संवेगरंगशाला एवं उत्तराध्ययनसूत्र में मृत्यु के दो रूप बताए गए हैं -
१. निर्भयतापूर्वक मृत्युवरण एवं २. अनिच्छापूर्वक अथवा भयभीत होकर मृत्यु को प्राप्त करना। समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। मरण के पहले प्रकार को पण्डितमरण या समाधिमरण कहा गया है और दूसरे प्रकार को बाल (अज्ञानी) मरण या असमाधिमरण कहा गया है। एक ज्ञानीजन का देहत्याग है, तो दूसरा अज्ञानी एवं विषयासक्त का मरण है, इसलिए वह बार-बार मरता है, जबकि ज्ञानी अनासक्त होता है, इसलिए वह एक बार ही मरता है।
अज्ञानी मृत्यु के भय से कांपता है तथा उससे बचने का प्रयास करता है; किन्तु ज्ञानी मृत्यु का वरण करता है। ज्ञानी मृत्यु से भयभीत नहीं होता, उस अवस्था में भी वह निर्भय होता है, अतः अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है। साधकों के प्रति महावीर का सन्देश यही था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर देहासक्ति छोड़कर उसका मित्रवत् स्वागत करो।
31 उत्तराध्ययनसूत्र -५/२, ३, ३२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org