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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 151
स्वभाववाली आत्मा हूँ। उसी की कर्ता, भोक्ता और अनुभवकर्ता हूँ। ज्ञायक का स्वभाव तो अविनाशी है, अतः यह शरीर रहा तो क्या? गया तो क्या? इसलिए शरीर पर से अपने ममत्व का त्याग करना ही उचित है।
__ "भगवतीआराधना के अनुसार समाधिमरण का व्रत लेनेवाला व्यक्ति अपना जीवन सफल करने के साथ-साथ अन्य जीवों का जीवन भी सफल करने में सहायक बनता है। जो व्यक्ति समाधिमरण ग्रहण करनेवालों के दर्शन, वन्दन
और पूजन करते हैं, वे अपने पाप को कम कर लेते हैं। समाधिमग्ण ग्रहण करनेवाला गृहस्थ भोग-विलास का तथा सम्पूर्ण आहार का त्याग करता है, अतः उसकी वन्दना करने से मुनि को वन्दना करने जैसा लाभ प्राप्त होता है। 268
समाधिमरण का जैन-धर्म में कितना अधिक सम्मान एवं महत्वपूर्ण स्थान है, इसका पता तो इसी से चलता है कि प्रत्येक जैनमुनि एवं श्रावक अपनी जीवन-साधना के अन्त में यही कामना करता है - मैं समाधिमरण ग्रहण कर इस देह का समभावपूर्वक त्याग कर सकू। इस प्रकार समाधिमरण का साधक समभावपूर्वक मृत्यु को स्वीकार कर मोक्ष को प्राप्त करता है। समाधिमरण कब और क्यों? :
__मूलाराधना में संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए सात मुख्य कारण दिए गए हैं :
१. दुर्चिकित्स्यव्याधि - संयम का परित्याग किए बिना व्याधि का उपचार करना सम्भव नहीं हो, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर।
२. वृद्धावस्था - जो श्रमण-जीवन की साधना करने में बाधक हो।
३. मानव, देव, तिर्यच सम्बन्धी कठिन उपसर्ग उपस्थित हो। चारित्रविनाश के लिए उपसर्ग किए जाते हों।
भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो रहा हो। ५. भयंकर अटवी में दिग्विमूढ़ होकर पथ-भ्रष्ट हो जाए।
देखने, श्रवण करने एवं पैर से चलने की शक्ति क्षीण हो
जाए।269
26 भगवतीआराधना, १९६५-२००३. 269 मूलाराधना २, ७१-७४.
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