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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 155
जिसने काया को दुर्बल बना लिया, अपनी कषायों को शुभभावना के चिन्तन-मनन से पतला कर लिया तथा समस्त प्रकार के राग-द्वेष से मुक्त हो गया, वह समाधिमरण ग्रहण करने के योग्य है। 277 संलेखना - व्रत ग्रहण करनेवाले साधक का मन वासना से मुक्त हो, उसमें किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं होना चाहिए।
मूलाचार में भी समाधिमरण लेनेवाले की योग्यता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ममत्वरहित, अहंकाररहित, कषायरहित, धीर, निदानरहित, सम्यग्दर्शन से सम्पन्न, इन्द्रियों को अपने वश में रखनेवाला, सांसारिक राग को समझनेवाला, अल्पकषायवाला, इन्द्रिय निग्रह में कुशल, चारित्र को स्वच्छ रखने में प्रयासरत तथा संसार के समस्त दुःखों को जानकर एवं समझकर इससे विरत रहनेवाला व्यक्ति समाधिमरण करने का अधिकारी होता है। 278
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि साधक को सर्वप्रथम मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को शान्त करना होता है; क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, आदि कषायों ( आन्तरिक - शत्रुओं) पर विजय प्राप्त करना होता है एवं इन्द्रियों के विषयों के प्रति ममत्व का त्याग करना होता है । इस तरह मुख्य रूप से जिसकी देहासक्ति नष्ट हो चुकी हो एवं कषाय भी क्षीण हो गए हों, उसी भव्य आत्मा को समाधिमरण ग्रहण करने के योग्य जानना चाहिए।
मृत्युकाल जानने के उपाय
समाधिमरण ग्रहण करने के लिए एक आवश्यक शर्त यह है कि जब मृत्यु सन्निकट हो, तभी समाधिमरण ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु प्रश्न यह है कि मृत्यु की सन्निकटता को कैसे जाना जाए? इस हेतु जहाँ प्राचीन जैन आगमों में मानवीय एवं शारीरिक लक्षणों की चर्चा है, वहीं परवर्ती जैन आचार्यों ने काल, अर्थात् मृत्यु - ज्ञान के अन्यान्य उपायों की चर्चा भी की है। इन उपायों में अनेक उपाय स्वप्नशास्त्र, शकुनशास्त्र तथा तान्त्रिक साधना पर आधारित हैं। जैन परम्परा पर तन्त्रशास्त्र का प्रभाव तो दूसरी, तीसरी शती से प्रारम्भ हो गया था, किन्तु नौवीं-दसवीं शती तक वह अन्य तान्त्रिक - परम्पराओं से पूर्णतः प्रभावित भी था। यही कारण है कि संवेगरंगशाला, योगशास्त्र, आदि ग्रन्थों में मृत्युकाल जानने में इन तान्त्रिक विधियों का उल्लेख हुआ है।
आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला के कालपरिज्ञान- द्वार में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि विद्या, यंत्र, शकुन, आदि के द्वारा साधक की आयुष्य
277 मरणविभत्ति, १८७, १८६, १६६, १७६.
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मूलाचार (पूर्वार्द्ध) १०३.
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