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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 131
जैनधर्म में आराधना के अन्तर्गत तप-साधना को आवश्यक माना गया है। चाहे मुनि-जीवन की सामान्य आराधना हो या अन्तिम आराधना, दोनों ही तपोमय हैं। बिना तप के आराधना सम्भव नहीं है। आराधना का मुख्य प्रयोजन मुक्ति है। मुक्ति के लिए कर्मों की निर्जरा आवश्यक है और कर्मों की निर्जरा तप के द्वारा ही सम्भव है, यही कारण है कि जैन-धर्म में निर्जरा की चर्चा करते हुए तपों का ही विवेचन किया गया है। जैन-परम्परा में तप का जो बाह्य-तप और
आभ्यन्तर तप का विभेद किया गया है, वह विभेद मुख्यतया इस आधार पर है कि जो बाह्य-क्रियाओं या घटनाओं से सम्बन्धित है, अथवा जिनका सम्बन्ध बाह्य-वस्तु के परित्याग से है, वे बाह्य-तप कहलाते हैं और जिनका सम्बन्ध हमारी आत्मा से है, वे आन्तरिक-तप कहलाते हैं। संवेगरंगशाला में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने संलेखना के प्रसंग में मुख्य रूप से बाह्य-तपों की चर्चा की है, किन्तु साधना के क्षेत्र में बाय-तपों के साथ-साथ आभ्यन्तर-तप भी आवश्यक है। यहाँ हम क्रमशः प्रथम छः बाह्य-तपों की और उसके पश्चात् छः आभ्यन्तर-तपों की विवेचना करेंगे। बाह्य-तप छः हैं - १. अनशन २. उणोदरिका ३. वृत्तिसंक्षेप ४. रसत्याग ५. कायक्लेश और
६. संलीनता। १. अनशन :- संवेगरंगशाला में अनशन दो प्रकार के बताए गए हैं- सर्व-अनशन और देश-अनशन। जो जीवनपर्यन्त आहार-त्याग का प्रत्याख्यान करता है, उसे भवचरिम, अर्थात् सर्व-अनशन कहते हैं। जो यथाशक्ति उपवास, आदि तप करता है, उसे देश-अनशन कहते हैं।215
२. अवमोदरिका या उणोदरिका :- प्रस्तुत कृति में द्रव्य-उणोदरिका एवं भाव-उणोदरिका- इस प्रकार दो भेद किए गए हैं। द्रव्य-उणोदरी उपकरण एवं आहार-पानी के विषय में होती है, उपकरण-उणोदरी जिनकल्पी मुनियों को होती है। आगम-साहित्य में पुरुषों के लिए बत्तीस कवल आहार एवं स्त्रियों के लिए अट्ठाईस कवल आहार की मात्रा का उल्लेख है। जो आकार में बड़े आँवले जितने, अथवा जिसे सुलभता से मुख में प्रवेश दिया जा सके उतने आकार के जानना चाहिए। “उणोदरिका-तप में कवल-मर्यादा भी पाँच प्रकार से बताई गई है- १. अल्पाहार, अर्थात् आठ कवल २. अपार्द्धा, अर्थात् बारह कवल ३. द्विभाग, अर्थात् सोलह कवल ४. प्राप्ता, अर्थात् चौबीस कवल
21 देसे सब्वेऽणसणं, सबवाऽणसणं भणति भवचारिमांदेसे चउत्थमाऽऽई, जहसत्तीए कुणइ एसो।। संवेगरंगशाला, गाथा ४०२०.
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